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बिहारी-रत्नाकर हुई-यह शब्द संस्कृत ‘हति' शब्द का अपभ्रंश-रूप है । 'हृति' का अर्थ विस्मय, भय, विवशता, निराशता इत्यादि होता है । यहाँ र.का अर्थ भय अथवा विस्मय है। किसी किसी ने, 'हई को अरबी शब्द ‘हयरत' का बिगड़ा हुश्रा रुप मान कर, बिहारी पर शब्दों के मरोड़ने का धप्पा धरा है । पर ‘हई' शब्द का प्रयोग बिहारी ने बिगाड़ कर नहीं किया है । यह शब्द अब भी-सामान्यतः अवध प्रांत में-भय के अर्थ में बोला जाता है, जैसे उस खेत में बंदरों की बड़ी हुई है। जुगति ( युक्ति ) = योजना विधि, रीति || जोइ = देख कर ॥ दीठि=( १ ) दृष्टि । ( २ ) कुदृष्टि । दुबरी= दुर्बल ।। ( अवतरण )-पूर्वानुरागिनी का वचन अंतरंगिनी सखी से. ( अर्थ )-जगत् में [ यह ] नई रीति देख कर दय में हुई ( विस्मय, भय ) छाई रहती है [ कि ] है दई, लगती तो दृष्टि को दृष्टि ( १. आँख से आँख । २. अख को कुदृष्टि ) है, [ पर ] दुबली देह होती है । | भय का कारण यह है कि जगत् में सामान्य ति तो यह है कि जिसको कुइष्टि लगता है, वही दुबला होता है, पर स्नेह-व्यापार मैं लगती तो दृष्टि की दृष्टि है, और दुबली देह होती है। जज्य उझकि झाँपति बदनु, झुकति बिहँसि, सतराइ । तत्य गुलाल-मुठी झुठी झझकावत यो जाइ ॥ ५०३ ॥ झाँपति = ढाँपती है ।। सतराइ= खिभला कर || झुठी= विना गुलाल-भरी ॥ झझकावत = डराता । ( अवतरण )- होली के खेल में नायक को गुलाल-भरी मूठ ताने हुए देख कर नायिका, आँखाँ मैं गुलाल पड़ने के भय से चौंक कर, पूँघट से मुख ढाँपती, झुक जाती, हँसती और खिझलाती है। नायक को उसकी यह चेष्टा ऐसी अच्छी लगती है कि वह उसको फिर फिर देखना चाहता है, अतः वह विना गुलात-भरी ही मूठ तान तान कर उसको डराता जाता है, जिसमें वह फिर फिर वही चेष्टा करे । विना गुलाल की मूठ वह इसलिए तानता है कि उसको भी अपनी परम सुकुमारी प्राणप्यारी की आखों में गुलाल पड़ने का भय है, और वह यह भी सोचता है कि यदि एक बार गुलाल अाखाँ मैं पछ जायगा, तो फिर वह निडर हो जायगी, और मेरी मूठ का तानना देख भी न सकेगी, अतः फिर मुठ तानने पर वह मनोमोहिनी चेष्टा न करेगी। सखी-वचन सखी से ( अर्थ )-[ हे सखी ! देख, कैसा सुंदर खल हो रहा है ] 'जज्यो' ( ज्यों ज्यों ) [ नायिका ] उझक कर (चीक कर) [ अपना ] वदन ( मुख ) ढाँपती है, [ तथा ] विचित्र प्रकार स हँस [ तथा ] खिभला कर भुक जाती है, 'तय' ( त्यों यों) ‘प्यौ' ( प्रियतम ) [ उसकी उस मनोहारिणी चेष्टा से रीझ कर ] गुलाल की झूठी मूठ से [ उसको ] झझकाता ( डराता ) जाता है [ जिसमें वह फिर फिर वैसी ही चेष्टा करे ] ॥ छिनकु, छबीले लाल, वह नहिँ जौ लँग बराति। ऊख, महुष, पियूष के तौ लागि भूख न जाति ॥ ५०४ ।। १. ज्यों य (४, ५)। २. ढाँपतिं ( २ ) । ३. यौं न्यौं ( ४, ५) | ४. १६य ( ४ ) ५, श्राइ ( २ )। ६. लगु ( ३, ४ }। ७, बतराइ ( २, ४) । ६, मयूष ( ३, ५) । ६. तर ( ३, ५ )।१०. आइ ( ३, ४ ) ।