६०४ बिहारी-रखाकर कार [ कुछ ] रुष्टता किए हुए कह कर [ उसने ] उधर सखी को उहता दे कर इधर मेरी ओर [ दयी अखिों से ] देखा [ से उसकी वह चेष्टा मुझे विकल किए डालती है ] ॥ -- ** G+---- नहिँ हरि लौं हियरा धरौ, नहिँ हर लौं अरधंग ।। एकत । करि राखियै अंग अंग प्रति अंग ॥ ४९४ ।। ( अवतरण )-दृता नायिका को नायक के पास जा कर कहती है कि यह सवग-सुंदरी है, अतः इसके प्रति अंग का सुख प्रापको प्रति अंग से लेना चाहिए । ( अर्थ )-[ इस सवंग-सुंदरी नायिका को आप ] न [ तो ] विष्णु भगवान् की भाँति हृदय में धारण कीजिए, [ और ] न शंकर की भाँति अद्धग में । [ इसके तो ] अंग अंग को [ आप अपने ] प्रति अंग ( अंग अंग ) में एकत्र ही कर के ( एक ही कर के ) खिए [ तभी आपको इसके सर्वांग-सुखदायिनी होने का अनुभव हो सकेगा ] ॥ कियौ सबै जगु काम-बस, जीते जिते अजेइ । कुसुमसरहिँ सर धनुष कर अगहनु गहन न देइ ॥ ४९५ ॥ ( अवतरण )-मानिनी नायिका का मान छुड़ाने के अभिप्राय से सखा उससे अगहन मास के विशेष उद्दीपनकारी होने का वर्णन करती है ( अर्थ )-[ यह ] अगहन ( १. जाड़े का मास विशेष । २. आगे मारने वाला, सेना का अग्रगामी, सेनापति ) [ ऐसा प्रवल तथा स्वामिभक्त है कि अपने प्रभु ] कुसुमसर [ महाराज ] को हाथ में सर [ तथा ] धनुष लेने [ का कष्ट उठाने ] नहीं देता । [ अपने प्रयल प्रभाव से उसने स्वयं ही ] सब जगत् को काम के वश में कर दिया है,[ और ] जितने [येगी, यती इत्यादि ] अजेय ( जाते जाने के अयोग्य ) [ समझे जाते ] ५, ! उनको भी । जीत लिया है । [ बस फिर ऐसे अगहन के अधिकार के समय तेरा मान करना सर्वथा अनुचित है । वयेाकि वह तेर हृदय के भी अवश्य ही काम-वश कर देगा ] । छकि रसाग-सौरभ, सने मधुर धु-गंध ।। ठौर ठौर भरत कैंपत भर-झौर मधु-अध ।। ४९६ ।। ( अवतरण )-वसंत का वर्णन कर के सखा मानिनी का मान छाया चाहती है ( अर्थ )-[ यह सुखद समय मान करने का नहीं है । देख, ] आम के बोरों की सुगंध से छुक ( अ ) कर, [ तथा ] माधुरी [ लता के पुष्पों ] की मधुर सुगंधि से सने हुए, [ एवं ] मधु ( मकरंद-रूपी मदिरा ) ! के पान ] से अधे ( मतवाले ) भ्रम के झुंड ठौर ठौर झरते ( भूमर बाँध कर मँडराते ) [ और ] कैंपते ( झुकते अथवा ढाप लेते ) हैं ॥ १. ध ( २, ३) । २. गहि (४) । ३. राखिहीं ( ३, ४) । ४. छिरें ( ३ )।