२०० बिहारी-रत्नाकर ( अर्थ )-झर-बरसीदें ( झड़ी बाँध कर बरसने वाले ) मेघ मुनियों को [ भी ] नेह से सरसोंह' ( सरस ) कर के, तिय-तरसह ( स्त्रियों के निमित्त तरसने वाले अर्थात् स्त्रियों की उत्क: अभिलाषा करने वाले ) किर हुए धर-परहें ( धरा को स्पर्श करते हुए से ) हो रहे हैं ।। धरा के स्थान पर ‘धर' का प्रयोग भाषा के प्रायः सभी कवि ने किया है ॥ घन-घेरा छुटि गौ, हघि चली चेहूँ दिसि रहि ।। कियौ सुचैनी आइ जगु सरद-सूरदरनाह ॥ ४८५ ॥ घन -यह शब्द यहाँ श्लिष्ट है । इसका एक अर्थ बादल और दूसरा अर्थ मार डालने वाला, अर्थात् डाकू इत्यादि, है। इन्हीं दो अर्थ के अाधार पर इसमें श्लिष्टपद मूलक रूपक है । ( अवतरण )-प्रोपितपतिका नायिका की सखी, उसको ढाढ़स बँधान के निमित्त, कहती है कि अब वर्ष बीत गई और शरद् का सुखद् समय आ गया है । वर्षा के कारण जो रास्ते बंद हो रहे थे, वे खुल गए और चारों ओर लोग आने जाने लगे हैं। अतः अब तु धैर्य धर, तेरे प्रियतम भी शीघ्र ही प्रायः चाहते हैं ( अर्थ ) --बदल-रूपी डाकु, घातक का घेरा ( घेघार ) छूट गया, चारों ओर हर्ष पूर्वक ( घने की बाधा से निडर हो कर ] राह ( मार्ग ) चलने लगी ( लोग मार्ग चलने लगे ). [ और ] शरद-रूपी शूर ( वहादुर ) राजा ने । कर ( अपना अधिकार जमा कर ) जगत् को ‘सुचेना' ( सुत्री, अर्थात् घना की वाधा से राहत ) कर दिया । वर्षा ऋतु मैं बादल की घरघार के कारण और निर्बल राजा अथवा विमा राजा के देश में डाकु इत्यादि के लगने के कारण मार्ग बंद हो जाते हैं। पर शरद् ऋतु मैं बादल के हट जाने पर एवं देश में प्रबल राजा का अधिकार हो जाने से डाकु ाँ इत्यादि के उपद्रव शांत हो जाने पर मार्ग खुल जाते हैं, और सब लोग सुख से चारों ओर आने जाने लगते हैं। पावस-घन-अँधियार मेरि रह्यौ भेदु नहिँ आनु । | रात द्यौस जाँन्यौ परतु लखि चकई चकवानु ॥ ४८६ ।। लखि चकई चकवानु = चकई-चकवाओं को पृथक् पृथक् एवं एकत्र देख कर, अथवा उनके शब्द से यह लक्षित कर के कि वे पृथक् पृथक् हें था एकत्र । चकई चकवा के विषय में यह प्रसिद्ध है कि वे रात्रि को एकत्र नहीं रहते, किसी जलाशय का अंतर दे कर, एक इस पार और दूसरा उस पार रहता है । दिन में फिर वे एकत्र हो जाते हैं। जब वे पृथक् रहते हैं, तो अन्य प्रकार से शब्द करते हैं, जो कि कराहने के सदृश होता है, और जब एकत्र रहते हैं, तो अन्य प्रकार का शब्द करते हैं, जिससे आनंद सूचित होता है । १. चहो ( ३, ५ ) । २. मैं ( २ ) । ३. जानी ( ३, ५ ) ।