११८ बिहारी-रत्नाकर ( अर्थ )-हे लाल, श्वेत धोती मैं [ वह] कनक-वर्ण से तन वाली वाला [ऐसी] शोभित है [ कि उसके आगे ] शरद् ऋतु के बादल की बिजुली को प्रभा रद ( व्यर्थ, बेकाम ) की जाती ( समझी जाती ) है ॥ बहु धनु लै, अहँसानु कै', पारौ देत सराहि । बैद-बधू, हंसि भेद सौं, रही नाह-मुह चाहि ॥ ४७8 ।। ( अवतरण )--कोई वैद्य, जो स्वयं नपुंसक है, किसी को अपना फेंका हुअा पारा, बहुत धन से कर तथा बड़े निहोरे से, उसकी रति-शक्ति बढ़ाने के निमित्त, दे रहा है। यह देख कर उसकी जी, मर्म की बात सोच कर अर्थात् यह सोच कर कि यदि यह पारा वास्तव में ऐसा गुणद होता तो यह स्वयं क्र्यों नपुंसक बना रहता, हँस देती है। यही वृत्तांत कोई किसी से कहता है अथवा कवि ही की उक्ति है ( अर्थ )-[ किसी नपुंसक रोगी से ] बहुत सा धन ले कर, [ और ऊपर से उस पर ] एहसान कर के ( अपना उपकार जना कर ) [ एवं ] बड़ी प्रशंसा कर के [ अपने पति के] पारा देते समय वैद्य की बधू, भेद ( मर्म ) से हँस कर, नाह (नाथ, पति ) का मुख देख रही हैं अथवा देख कर रह गई ।।। रहौ, गुही बेनी, लखे गुहिबे के त्यौनर । लागे नीर चुचन, जे नीठि सुकाए बार ॥ ४८० ॥ त्यौनार=ढंग, रीति ॥ ( अवतरण )-नायक नायिका की चोटी पूँथ रहा है। स्पर्श से दोनों को स्वेद साविक हो गया है, जिससे नायिका के बाल भीग गए हैं। नायिका साविक छिपाने के निमित्त, मारे लाड़ के नायक के गूंथने के ढंग मैं दोषारोपण कर के, कहती है | ( अर्थ )-रहो ( ठहरो, रहने दो, बाल गुँथना बंद करे ), गुही बेनी ( तुम बेनी गॅथ धुके, अर्थात् तुम्हारे गूंथे बेनी गॅथी न जायगी ), [ तुम्हारे ] गूंथने के ढंग देखे गए ( अर्थात् परीक्षा करने पर सर्वथा निकम्मे ठहरे ) । [ नैंक तुम अपने गुँथने के ढंग की विलक्षणता तो देखो कि ] जो बाल नीठि ( बड़ी कठिनता से ) सुखाए थे, [ वे फिर से गीले हो कर ] नीर चुचाने ( टपकने ) लगे ॥ इस दोहे की नायिका स्वाधीनपतिका है। 'नीठि सुकाए बार' वाक्यांश से उसे अपने बा के सघन तथा क्षेबे होने का गर्व होना भी झलकता है ॥ भीत, न नीति गलीतु है जो धरियै धनु जोरि ।। खाएँ खरचैं जौ जुरै, तौ जोरियै कैरोरि ॥ ४८१ ॥ १. अहिसान ( २ ), हिसानु (४) । २. करि ( २ ) । ३. रही ( १, २ ) । ४. को ( ३, ५ ) । ५. सुचादने ( ३) । ६. सुखाए ( २ ) । ७. नीत ( १ ), मति ( ३, ५ )। ८. जोर ( ५ )। ९. करोर ( ५ )।