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प्राक्कथन

कीर्ति जी के शिष्य पं॰ शंभूनाथ के द्वारा, लखनऊ में, किसी केसरीसिंह जी के पुत्र गिरधरलाल जी के पढ़ने के निमित्त, लिखी गई थी। इस प्रति के अक्षर भी मारवाड़ियोंँ के से हैं, और ५-७ दोहोँ को छोड़ कर शेष दोहोँ का क्रम इसमें भी वही है, जो पं॰ लक्ष्मीनारायण जी वाली प्रति में। इन दोनोँ पुस्तकों का क्रम एक ही होने से हमारी यह धारणा और भी पुष्ट हो गई कि यही क्रम दोहोँ की रचना का है। ज्ञात होता है, उस समय बिहारी के स्फुट दोहे देश-देशांतरोँ में फैल गए थे, और काव्य-प्रेमियोँ द्वारा सादर पढ़े-सुने जाते थे; पर सतसई की पूरी पुस्तक दुष्प्राप्य थी। अतएव जयपुर और अलवर के कवियोँ को उसके द्वारा द्रव्योपार्जन करने का अच्छा अवसर मिलता था। जयपुर अथवा अलवर का कोई कवि अथवा सामान्य पढ़ा-लिखा मनुष्य, सतसई की कोई प्रति प्राप्त कर के, देशाटन को निकल पढ़ता था, और किसी नगर में पहुँच कर वहाँ के धनाढ्य कविता-प्रेमियोँ को बिहारी के दोहे तथा उनके अर्थ सुनाता और रिझाता था। इसी व्याज से वह यहाँ कुछ दिनोँ टिकता और सम्मानित होता था, और चलते समय यदि किसी गुणग्राहक की अभिलाषा होती थी, तो सतसई की प्रतिलिपि लिख, उन्हेँ भेँट कर और गहरी दक्षिणा ले आगे बढ़ता था। यह पुस्तक भी इसी प्रकार लिखी हुई प्रतीत होती है॥

ऊपर लिखी हुई दोनोँ पुस्तकोँ से जब यह धारणा पुष्ट हुई कि उनके क्रम का दोहोँ की रचना का क्रम होना संभावित है, तो उसी के साथ यह बात भी चित्त में उठी कि जयपुर के राज-पुस्तकालय में संभवतः बिहारी की स्वहस्त लिखित सतसई विद्यमान होगी। अतः उक्त पुस्तकालय में सतसई की जो प्राचीन प्रतियाँ उपस्थित हैं, उनकी प्रतिलिपि प्राप्त करने का उद्योग आरँभ किया गया। पर पता लगाने पर ज्ञात हुआ कि यह कार्य बढ़ा दुः‌ साध्य है। उक्त राज्य में दो पुस्तकालय हैँ—एक सार्वजनिक और दूसरा निजी। सार्वजनिक पुस्तकालय से तो सर्वसाधारण लाभ उठा सकते हैँ, पर निजी पुस्तकालय में बिना महाराज की विशेष आशा के कोई प्रवेश नहीँ कर पाता, और प्राचीन हस्तलिखित ग्रंथ विशेषतः निज ही के पुस्तकालय मेँ, बड़े यत्न तथा चौकसी से, संरक्षित हैँ। यह जान कर पहले तो जी कुछ कचिया सा गया पर फिर हम, यह सोचकर कि उद्योग से कदाचित् कुछ सफलता हो जाय, उक्त कार्य मेँ लगे रहेँ॥

जब और कोई उद्योग सफल होता न दिखाई दिया, तो हमने श्रीमती महारानी अवधेश्वरी से एक पत्र श्रीमान् महाराजाधिराज दर्भंगा-नरेश को लिखवाया कि यह श्रीमान् जयपुराधीश से पत्र-व्यवहार कर के उनके निजी पुस्तकालय में उपस्थित सतसई की प्रतियाँ हमें देखने देने का उपाय कर दें। यही प्रार्थना हमने अपने मित्र श्रीमान् कर्नल विध्येश्वरी प्रसादसिंह जी से भी की। ये दोनों उद्योग ईश्वर की कृपा से फलीभूत हुए, और दोनों स्थानों से सूचना मिली कि श्रीमान् महाराजा साहब बहादुर जयपुराधीश ने आशा दे दी है कि यदि कोई व्यक्ति यहाँ से भेजा जाय, तो सतसई की प्राचीन प्रतियों को देख सकता है॥

श्रीमान् महाराजाधिराज दर्भंगा-नरेश के पास ओ उत्तर स्वर्गवासी श्रीमान् जयपुराधीश सवाई श्री महाराजा माधवसिंह जी का आया था, उसकी प्रतिलिपि यह है—