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बिहारी-रत्नाकर

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बिहारी-रत्नाकर १८५ इस दोहे मैं कवि ने यह समस्कार दिखाया है कि बोझा तो एक के हृदय पर बढ़ता है, और उसके प्रभाव से उच्छ्रास दूसरे का सँधता है । अलि, इन लोइन-सरतु कौ खरौ विषम संचारु । लगै लगाएँ एक से दुहूर्नु करत सुमारु ॥ ४५० ॥ ( अवतरण )-नायक से सामना होने पर नायिका ने, उसके ऊपर, नगन के बाण चलाए थे, जिनसे विकल हो कर नायक तड़प रहा है ! सखी ने उपका दृत्तांत नायिका से कुछ इस रीति पर कहा कि वाह ! उस दिन तूने कटाक्ष चला कर उस बेचारे को तो ऐसा घायल किया कि वह पड़ा कराह र है! इसके उत्तर मैं नायिका, इस दोहे के द्वारा, अपना भी उससे अनुरक्र होना विदित करती है | ( अर्थ )-हे सखी, [ तु यह मत समझ कि वह ही मेरे अनुराग में विकल हैं, मैं भी तो उनके मिलने की अभिलाषा से तड़प रही हूँ ] इन लोचन-रूपी सरों ( बाण ) का बड़ा विषम संचार( व्यापार ) है ।[ ये ] 'सुमारु' ( अच्छे अर्थात् बुरे मारने वाले ) ‘लगैं लगाएँ' ( जिसके लगे हैं तथा जिसके द्वारा लगाए गए हैं ), दोनों को एक सा [ विकल] करते हैं ॥ इस दोहे मैं जो ‘दुहुँनु' पाठ है, उसके कारण छंद की गति में कुछ शिथिलता आ जाती है। चौथे अंक की पुस्तक मैं ‘दुहुवन' पाठ है, और यही पाठ यूसुफ़ख़ाँ की टीका और हरिप्रकाश-टीका मैं भी मिलता है ; पर 'दुहुवन' रूप का प्रयोग बिहारी की टकसाली भाषा के बाहर ज्ञात होता है, यद्यपि इस पाठ से छंद की गति सुधर जाती है । कृष्ण कवि की टीका तथा अमरचंद्रिका मैं क्रमशः ‘दोउन तथा 'दोहन' पाठ मिलते हैं। इन पार्टी से छंद की गति भी ठीक हो जाती है, और भाषा भी ठीक रहती है। पर हमारी पाँच प्राचीन पुस्तक मैं से चार मैं ‘दुहुँनु' ही पाठ है, और अनवरचंद्रिका मैं भी ऐसा ही है, अतः इस संस्करण में ‘दुहुँनु' ही पाठ रक्खा गया है ॥ मुड़ चढ़ाएँॐ रहै पखौ पीठ कच-भारु । रहै गरै परि, राखिंबी तऊ हियँ पर हारु ।। ४५१ ॥ मुहू चढ़ाएँ-मूड़ चढ़ाने का शब्दार्थ सिर पर धारण करना, एवं लक्ष्यार्थ किसी का आदर कर कर के उसे धृष्ट कर देना होता है । पखौ पीठि–पीठ पर पड़े रहने का लक्ष्यार्थ बोलचाल में विना सन्मान के रहना होता है ॥ गर्दै परि-गले पड़ने का लक्ष्यार्थ लोकोक्ति में किसी के पास विना उसकी इच्छा के रहना होता है ॥ हियँ पर-हियँ पर' का शब्दार्थ छाती पर, एवं लक्ष्यार्थ सादर, है ॥ ( अवतरण )-- अयोग्य पुरुष का चाहे कितना ही सन्मान किया जाय, पर वह श्रेष्ठ पद का अधिकारी नहीं होता, और गुणी पुरुष यदि गले पड़ कर भी रहे, तो भी उसे श्रेष्ठ पद देना होता है। इसी बात को कवि, बाल संथा हार पर अन्योक्कि कर के, कहता है ( अर्थ )-कच-भार ( बालों का समूह ) मूड चढ़ाने पर भी पीठ ही पर पड़ा रहता १. दुहुवन ( ४ ) । २. चढायौऊ ( ३, ५ ), चढ़ाये हूँ (४) । ३. रहो ( ४ ) । ४. राखियै ( २, ३) ।