१६४
विहारी-रत्नाकर ( अर्थ )-उन [ दोनों ] का [ परस्पर जो अनुपम तथा अलौकिक ] हित ( प्रेम ) [ है, वह ] उन्हाँ से [ करते ] बनता है। [ वैसा प्रेम करने की ] कोई अनेक [ चेष्टा किया ] करो [ पर वैसा हो नहीं सकता ]। [ प्रेम के कारण उन दोनों की तो ऐसी दशा हो रही है कि दोनों के प्राण एक ही हो गए हैं, और ऐसा जान पड़ता है कि ] एक ही जीव काकगोलक हुआ दोनों के शरीर में फिरता है ॥
गड़े, बड़े छबि-छाक छकि, छिगुनी-छोर छुटै न ।।
रहे सुसँग सँग सँगि उहीं नह-दी मेंहदी नैन ॥ ४४८ ॥ | छिगुनी-छोर= कानी अँगुली के सिरे पर ॥ सुरंग= लाल । उहाँ = उसी स्थल पर ॥ नह-दी= नख में दी हुई ॥ महदी= मेंहदी ॥
| ( अवतरण )-नायक को नायिका की कनिष्ठिकांगुली की शोभा ऐसी अच्छी लगी है कि उसके नयन वहाँ से टलते ही नहीं, और मैंहदी के रंग से अनुरक्र हो रहे हैं। यह वृत्तांत वह नायिका से कह कर उसको प्रसन्न किया चाहता है
| ( अर्थ )–छवि के बड़े ( गहरे ) छाक ( मद्यपान ) से छक कर ( मतवाले हो कर ) छिगुनी के सिरे पर गड़े हुए [ मेरे ] नयन छूटते नहीं ( हट नहीं पाते ), [ और ] ‘उहाँ' (उसी स्थान पर अथवा उसी कनिष्ठिका अँगुली के) नह (नख ) में दी हुई मेंहदी से सुरंग रंग में रंग रहे हैं ( भली भाँति अनुरक़ हो रहे हैं )॥
'गड़े, बड़े छबि-छाक छकि, छिगुनी-छोर', यह खंड-वाक्य 'नैन' शब्द का विशेषण है ॥ 'नह-दी महदी' पद करणकारक है ॥
होली के दिन मैं जब किसी को बहुत गना और छकाना होता है, तो पहिले उसको कोई गहरे नशे की वस्तु पिला देते हैं, जिससे वह मतवाला हो कर भाग नहीं सकता, और जब वह भकुआ हो कर रह जाता है, तो उसको रंग तथा गुलाल इत्यादि से भली भाँति लत्तपत्त कर के सब लोग आमोदप्रमोद मचाते हैं। नायक अपने नेत्र की वैसी ही दशा का होना कहता है ॥
बाढ़तु तो उर उरज-भरु “रि तरुनई-विकास।
बोझनु सौतिनु नैं हिमैं श्रवति लँधि उसास ।। ४४९ ॥ ( अवतरण )-नवयौवना नायिका से सखी का वचन
( अर्थ )--तरुणाई के विकास ( खिलाव ) से भर कर उरज ( छाती, कुर्च ) का भरोष ( बोझा ) [ तो ] तेरे हृदय पर बढ़ता है, [ और] बोझ [ के प्रभाव ] से उसास सौतों के हृदय में सँध कर (घुट कर ) आता है ( अर्थात् तेरी जवानी के आने से सौतों को दुःख होता है ) ॥
१. बिंगुरी ( १ ) । २. रही ( १ )। ३. मेहदी (४) । ४. भरु ( २ ), मर ( ३, ४ ) । ५. श्रावत ( ५ )। ६. बँधी ( १, २ )।
पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/२२७
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
१८४
बिहारी-रत्नाकर