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विद्दारी-रत्नाकर १८३ ( अवतरण )-किसी परकीया नायिका को बचन अंतरंगिनी सच्ची से-- ( अ )-[ सनी, मेरे ] दृदय-रूपी आलवाल में प्रेम पी तक की री झणराई Tई बात निदा-डपी ठार से कटती नहीं, [ यद्यपि ] अल( दुर्जन )-रुपी बाई बा कर के ए गए ॥ सोरठा % स्य विजुरी मनु मेड अनि इहाँ थिरहा धरे । ठौ जाम, अधेछ, दृग जु घरत बरसत रहत ।। ४४५ ॥ श्या = समेत, सहित ॥ अवेर ( अक्षेप )=निरंतर ॥ ( अवतरण )-प्रोपितपतिका नायिका का वचन सभी से-- ( अ )-[हे सबी, मेरे ] नेत्र जो आठों याम ( रातदिन ), निरंतर, बलते [ तथा] बरसते रहते हैं, सो ] मानो विरह ने बिजुली के समेत मेघ यहाँ (दन नेत्रों में ) खा रहे हैं। ॐ दोहा । कत पेकाज चलोइयति धतुराई की चाख । कहे देति यह रावरे सबै न मिरज मल ॥ ४४६ ॥ गुम ( गुण )-गुण का अर्थ यहाँ विपरीत लचणा से दोष लिया जाता है । निरगुन मायजी अधबा पुरुष बो मोतिय, अथवा अन्य किसी पदार्थ, की माला पहने होते हैं, उसके दाने आलिंगन करने में उदय पर उपट आते हैं, पर उसका दोरा ( गुण ) नहीं उपटता । यही विना गुण के उपटी हुई माया अ विड निव, अर्थात् विना डोरे की, भाला कहलाता है ॥ | ( अवतरण )-संहिता नायिका की उक्ति नायक से---- ( अ )[ मेरे आगे आपके द्वारा यह ] चतुराई की चाल { धूर्तता से मुकरने की रीति ) ब्यर्थ क्यों बताई जाती है। आपके सर गुण ( दोष ) यह निर्गुण माता कई देती है। उनको हितु उनहीं बनै, कोऊ करौ अनेकु ।। फिरतु काकगोलकु भयौ दुहुँ देह ज्यौ एकु ।। ४४७ ॥ | फागोलकु= कौए की आँख का देहूर अथवा पुतली । यह बात प्रसिद्ध है कि कौए की आँखों में गोखक एक ही होता है, और वह जब जिस आँख से देखना चाहता है, तब वह गोलक धूम कर उसी बॉस में चल्ला माता है ॥ ज्यौ ( जीव ) = प्राण ॥ | ( अवतरण )-रंपति का अनुपम तथः अलौकिक प्रेभ देख कर सन्नियाँ आपस में प्रसन्नतार दी है १. सौ ( २ ), न्यो (३, ४, ५ )। २. प्राइ ( १ ) । ३. वही ( १ ) । ४. थरी ( ३, ५), बरै (४) । ५. चलायत (१, ५ ) । १. विनगुन ( १ ) । ७. करे ( ४ ) ।।