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बिहारी-रत्नाकर

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शिकारी रखाकर 'बे पूज' ही पा, बतः ही इस परब में रचा गया है। इस पास के अनुसार गुलाब की बारियों को प्रीष्म पतु में गुण पशा में चार और त्र मास के सुंदर पुल का स्मरण कर के इस बोरे का कहा जादा मावना परता. समै समै सुंदर सबै, रूपु कुरूपु न कोई। मन की रुचि जेती जिते, तित तेती रूचि होइ॥ ४३२॥ ( अवतरण )--कवि की प्रास्ताविक रति कि मनुष्य को संसार की सब वस्तुएँ समय समय पर, अपनी रूचि के अनुसार, मुंबर जगती है, पास्तत्र में रैव-सृष्टि की कोई वस्तु कुरूप नहीं है.- ___(अ) उस परम सौदर्यमय सर्वव्यापी सएिकर्ता की सृष्टि में ] कोई रुप कुरूप नहीं है, समय समय ( अपने अपने अवसर ) पर सब ही सुंदर [ लगते । मनुष्य के मन की रवि (प्रीति, चार) [जिस समय ] जिस भोर जितनी [होती है, उस समय ] उस मोर ( उस वस्तु के पक्ष में ) उतनी रुचि (शोभा ) हो जाती है (जान पड़ने अगती)। - :---- या भव-पारावार को उघि पार को आई। तिय-कवि-हायानाधिनी प्रौभीषहीं भाइ॥ ४३३ ॥ कायामाशिमी-सिंहिका नाम की एक रासी, जो कि राष्ट्र की माता मानी नाती और समुद्र में रहती थी । उसे गा शक्ति बी कि जिस उड़ते हुए पी इत्यादि की परवाही बल पर पड़ती थी, उसे उसी परबाही के द्वारा धाकर्षित कर के भागी बी। जन हनुमान्जी लंका को जाते थे, तब उसने उन्हें भी पाकवित कर लिया। पर हनुमान जी ने उसे मार कर साह पार किया। (भवतरण -विकी स किइस भवसागर से पार होने में श्री पड़ी भारी बाधा है... (अर्थ) इस भष-पारावार (संसार-रूपी समुद्र) को लाँघ कर कौन पार जा सकता है, [क्याफि] सी की पषि रूपी कायाारिणी (छाया पकड़ कर भाँच खेने पाखी रामसी ) बीय ही में भा कर पकड़ लेती है [बस यदि हनुमानजी ऐसा प्राचारी तथा पराकमी हो, सो उससे बब कर पार हो सकता]u दिन दस भादर पोह के करि लै पापु परवानु। जो लगि काग! सराधपरख, तो लगि तो सनमानु ॥४३४॥ सरापपा (मादपा ) = पितृपक्ष । पितृपक्ष में अब लोग पितरों का भार करते हैं, तो कुछ बन कौए के लिए भी निकाल कर उसको पुकार कर खिला देते हैं। (भवतरण )--किसी बीच मनुष्य किसी विशेष भासर पर सम्मानित हो कर गर्व करने पर कोई ना दोहा, काक पर सम्बोक्ति कर के, करता है-- १.रि (1. ५) । २. दिती तिवै ( २, ४) । ३. गहै ( १, ३ ), प्रहति ( २ )। ४. रूप कौ ( ४ )। १. ( ३, ५) । ..हो (१)।