बिहारी-रत्नाकर १०० श्रति = वेद । सुम्रत्यौ = स्मृति भी ॥ सयाने = सज्ञान ॥ निसकहीं =शक्तिहीन ही को, निर्बल ही को ॥ | ( अवतरण )-कवि की प्रास्ताविक उक्रि है कि पातक, राजा तथा रोग, ये तीन निर्यण को दबाते हैं। अपनी इस उक़ि के विषय में कवि कहता है कि यही बात श्रुति, स्मृति तथा ज्ञानवान् पुरुष भी कहते हैं | ( अर्थ )-यही [बात] श्रुति [ और ] स्मृति भी कहती हैं, [और] यही ज्ञानी लोग [ भी कि संसार में ये ] तीन, [ अर्थात् ] पातक, राजा [ और] रोग, निर्बल ही को दबाते हैं ( दुःख देते हैं ) ॥ जो सिर धरि महिमा मंही लहियेति राजा राई । प्रगटत जड़ता अपेनियै सु मुटु पहिरत पाइ ॥ ४३० ॥ ( अवतरण )-कवि की उक्ति है कि जो वस्तु अथवा मनुष्य आदर के योग्य है, इसका निरादर करने से निरादर करने वाले ही की जड़ता प्रकट होती है-- ( अर्थ )—जो [ मुकुट] सिर पर धारण कर के मही ( पृथ्वी ) में राजा राइ के द्वारा महिमा ( बड़ाई) पाई जाती है, वह मुकुट पाँव में पहनते समय [ पहनने वाला] अपनी ही जड़ता प्रकट करता है [ उस मुकुट की गुणहीनता नहीं ] ॥ ‘मही’ को ‘महिमा' शब्द का विशेषण भी मान सकते हैं। को कहि सके बड़ेनु साँ' लखें बड़ीयौ भूल। दीने दुई गुलाब की इनै डारनु वे फूल ॥ ४३१ ॥ ( अवतरण )-कवि की प्रास्ताविक उक्रि है कि बड़े लोग से यदि कोई बड़ी भूख से भी जाती है, तो भी उनको कोई कुछ नहीं कहता । अपने इस कथन की पुष्टि मैं वह कहता है कि देखो, गुलाब की ऐसी कैंटीली तथा सूखी साखी डालियाँ मैं यद्यपि विधाता ने ऐसे सुंदर, कोमल तथा सुगंधित पुष्प दिए हैं, जो कि वास्तव में बड़ी भूल की बात है, तथापि उसे कोई कु का गरी सकता-- ( अर्थ )-[ देखो, ] दई ( दैव ) ने गुलाव की इन [ सूखी तथा कँटीली ]रालियों में वे [ संदर, कोमल तथा सुगंधित ] पुष्प [ जो कि चैत्र मास में देखने में आए थे] दिए । [यह वास्तव में बड़ा अयोग्य संघट्टन है । पर दैव से कोई कुछ कह नहीं सकता, क्योंकि] बों से [उनकी ] बड़ी भूल देखने पर भी कौन कह सकता है [ कि यह भूख है]॥ | ‘इन रिनु वे फूल' के स्थान पर ‘इन डोरनु ये फूल' पाठ होता, जैसा कि कुष्य कवि तथा हरिचरणदास की टीका में है, तो अर्थ बहुत स्पष्ट होता । पर हमारी पाँचो प्राचीन पुस्तकों में १. महौं ( २, ४, ५ ) । २. लहियत ( २, ३, ५) । ३. आपनी ( २, ४) । ४. मुट ( ४ )। ५. ॐ ( ३, ४)। ६. बड़ी यै ( २ ), बड़ी इहि ( ५ ) । ७. क ( २, ४ ) । ८. उनि (२)।