पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/२१९

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
१७६
बिहारी-रत्नाकर


१७६ बिहारी-रत्नाकर त्रिगुणातीत होता है ।। वंग-रंग = वेग अर्थात् ५। * ति । भूपाल = पृनी का पालन करने वाला । इस ‘भूपाल' शब्द के स्थान पर अनेक सटीक ग्रंथ में 'गोपाल' पाठ मिलता है । पर यह संस्करण जिन पाँच प्राचीन पुस्तक के ग्राधार पर संपादित हुआ है, उनमें भूपाल' ही २॥ठ है, अतः यही पाठ यहां रक्खा गया है । ( अवतरण १ )--इस हैं मैं कवि नर्गुणोपासना का समर्थन करता है । वह कहता है कि सगुणोपासना मैं तो प्रभु के गुण का, अनंत तथा अनीह होने के कारण, पार नहीं मिलता । अतः ज्याँ ज्याँ उनका विस्तार किया जाता है, याँ त्य, प्रभु दूर ही होते जाते हैं। पर निर्गुण-स्वरूप से सबके निकट है, अन् अंतःकण ही में, मिल जाते हैं, क्योंकि वह भूपाल, अर्थात् पृथ्वी भर का पालन करने वाले सर्वापी, हैं । इसी बात का कवि बदचातुरी से, उनकी उपमा चंग, अर्थात् गु, में देकर एवं गुण शब्द का श्लिष्ट प्रयेाग कर के, कहता है-- | ( अर्थ १. )-गुण-विस्तार करने के समय प्रभु तंग की भाँति पीठ दे कर दूर भागते हैं, [पर ] निर्गुण रूप से ( १. गुणों के बखेड़े ले रहित हो कर। २. डोरी से रहित हो कर) भूपाल ( भुवनपालक ) निकटवर्ती हा कर प्रकट होते हैं [ पतंग का उड़ाने वाला ज्यों ज्यों उसकी डोरी को विस्तृत करता जाता है, त्या त्या पतंग उससे दूर ही होती जाती है। पर जब वह उसको विना डोरी का कर देता है, अर्थात् उसकी डोरी समेट लेता है, तब वह उसके हाथ में आ जाती है। इसी प्रकार ईश्वर भी उसके गुण का विस्तार करने से दूर हो जाता है, पर निर्गुण रूप में, सर्वव्यापी होने के कारण, निकट ही, अर्थात् अपने ही में, रहता है ]॥ दोहे के पूर्वार्द्ध में वि ने 'प्रभु' शब्द का प्रयोग किया है, क्योंकि सगुणोपासना में सेव्य-सेवकभाव रहता है, जिनमें बड़ा अंतर है । पर उतरार्द्ध में उसने ‘भूपाल' शब्द का प्रयोग कर के उसके सर्वव्यापित्व का भाव दरसाया है । इस भाव में सृष्टि तथा सृष्टिकर्ता में अंतर का अभाव हो जाता है । यद्यपि पालक तथा पल्स में भी भद है, पर वहाँ ‘भूपाल' शव्द से सर्वव्यापी ही का भाव कवि ने ग्रहण किया है। ( अवतरण २ )-इभ दोहे का अर्थ राजा के गुणिय से दूर तथा गुणहीन से लिप्त रहने पर भी लगता है, और वह अर्थ विरोप सरल तथा स्पष्ट भी है, एवं भूपाल शव्द से पोषित भी होता है । अतः वह अर्थ भी नीचे लिखा जाना है ( अर्थ २ )--[ अपने ] गुण ( १. कलाकौशलादि । २. डोरी ) को विस्तृत ( १. वि. स्तार-पूर्वक प्रकट । २. लवी) करने के समय प्रभु ( राजा ) पीठ दे कर दूर भागता है। और निर्गुण ( १. गुण-हीन । २. डोरी-हीन ) के निकट रह कर भूपाल (राजा) चंग-रंग ( गुदी की रीति प्रकट करता है ॥ इस अर्थ मैं 'निर्गुण-निकट' को एक समस्त पद तथा ‘चंग-रंग’ को ‘प्रगटत' क्रिया का कर्म मानना चाहिए । घहै श्रुति सुम्रत्यौ, यही सयाने लोग । तीन दबावत निसकहीं पातक, राजा, रोग ॥ ४२९ ॥ | १. सुख सुप्रिति ( १ ), श्र। शमृति ( ३, ५ ), सो अति सुमृति ( ४ ) । २. यही ( ५ )। ३. निसकः ( २ ), निकसही ( ४ ), निकसई ( ५ ) ।।