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विहारी-रत्नाकर पड़ना', 'घूम जाना' किया है । यदि 'मुझरौट' का उच्चारण ‘गुझरोट' होना माना जाय, तो 'लौट' के स्थान पर ‘लाट' पाठ ठीक हो सकता है, और उसी अवस्था में इसका अर्थ 'त्रिबली' अथवा 'पेटी' माना जा सकता है ।
( अवतरण )-नायक को देख कर नायिका ने जो घूघट करने के निमित्त हाथ उठाया, तो उसका गुफरौटा ऊपर को उठ गया, जिससे उसके आँचल के नीचे के अंग खुलने लगे । अतः उनको नायक की दृष्टि से बचाने के निमित्त वह बड़ी शीघ्रता से पीछे की ओर लौट पड़ी । उसकी यह लौट देख कर नायक को बड़ा आनंद प्राप्त हुआ । सखी-वचन सवी से
| ( अर्थ )--[उसके ] हाथ उठा कर घूघट करने में पट के गुझरौटे के ‘उझरत' (ऊपर की ओर सरकते ) [ ही ] ललना ( नायिका ) की लौट देख कर ‘ललन' ( नायक ) ने सुख की मोटें (गठरियाँ ) लूट ॥
करौ कुवत जगु, कुटिलता तौं न, दीनदयाल ।
दुखी होगे सरल हिय बसत, त्रिभंगी लाल ।। ४२५ ॥ कुवत= बुरी बात, बुराई, निंदा । कुटिलता =( १ ) बुराई । ( २ ) टेढाई ।। सरल = ( १ ) शुद्ध, कपटहीन । ( २ ) सीधे ॥ त्रिभंगी= तीन जगह से टेढ़े ।।
( अवतरण )-भ की उक्ति भगवान् से| ( अर्थ )-हे दीनदयालु, [ मैं आपको अपने हृदय में बसाने के निमित्त ऐसा दीन और आतुर हो रहा हूँ कि यद्यपि ] जगत् [ मेरी ] निंदा किया करो (करता रहे ), [ तथापि मैं अपना ] कुटिलता न तजूंगा । [ क्योंकि यदि में कुटिलता छोड़ दूंगा, तो मेरा हृदय सरल हो जायगा, और फिर ] हे त्रिभंगी लाल, [ तुम ] सरल (सीधे ) हृदय में बसते हुए दुग्त्री हेगे ( कप्न पाहोगे )[ क्याँकि टेढ़ी वस्तु सीधी वस्तु के भीतर नहीं रह सकती। कहावत भी है कि सीधी मियान में टेढ़ी तलवार नहीं रहती ]॥
| कवि अथवा इस दोहे का वक्रा भक्त त्रिभंगी लाल को हृदय मैं बसाने के निमित्त ऐसा दीन हो रहा है कि यह जान कर भी कि मेरी कुटिलता की निंदा जगत् में हो रही है, वह अपने हृदय को सीधा नहीं झिया चाहता, क्याँकि उसकी यह धारणा है कि यदि मैं सीधा हो जाऊँगा, तो वह तीन जगह से टेढ़े भगवान् मुझमें कैसे बसेंगे। अतः वह कुटिलता रखने ही मैं अपने को परम दीन मान कर भगवान् को ‘दीनदयाल' शब्द से संबोधित करता है ।।
निज करनी सकुचेहिँ कत सकुचावत इहिँ चाल ।
मोहूँ से नित-बिमुख-त्य सनमुख रहि, गोपाल ॥ ४२६ ॥ बिमुख= किसी की ओर से मुख फेर कर रहने वाला, अर्थात् उसको न मानने वाला । त्य= ओर ।। सनमुख = किसी की शोर मुख किए हुए, अर्थात् उसके सानुकूल ।।
( अवतरण )-कोई अपनी करनी से अति संकुचित भक़ वृंदावन-विहारी श्रीगोपाल लाल को अपने ऊपर भी कृपा करते जान, अति संकुचित हो कर, कहता है
१. स( २ )।
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बिहारी-रत्नाकर