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बिहारी-रत्नाकर


बिहारी-रक्षक बंजक वचन ] प्रेम-पूर्वक ने बोली, मानी [ उसके ] गले में [ प्रियतम की ] डबडबा दुई दृष्टि ने भली भाँति पकड़ रक्खा ( मार्ग सैथ रखt ) ॥ अपनी गरजेनु घोलियतु; कहा निहोरी तोहि । तू प्यारी मो जीर्य कौं, मी , प्यारी मोहूिँ ।। ४०९ ॥ गैर मर्नु = गरज से । गरज अरबी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ प्रयोजेनं अन् इष्टार्थ अथवा स्वार्थ है । उभी ‘राज' शब्द का बहुवचन •गरजन है ।। निहारौ = कृतज्ञता, एहसान ।। ( अवतरण ) नायक के अपराध पर रुष्ट हो कर नायिका ने मैमावलंबन केर लिया था। नायक ने उसकी बहुत अनुनय विनय की, और अब उसके माने जाने पर वह कृतज्ञता प्रशित करता है। नायिका शिष्टाचार की रीति पर कहती है कि मेरे मन जाने के एहसान कुछ तुझ पर से है, प्रत्युत मेरे प्राणी ही पर है। इस कह मे मैं वह, यह भी कह करे कि मेरी प्राण विना तुझसे बौखे शरीर मैं मेरी रह सकता, अपमा प्रेमाधिक्य व्यंजित कर देती है, और यह भी ध्वनित करती है कि मैं केवलं अपने प्राण के माहे से सुझसे बोलती हैं, कुछ तेरी सुभषा से नहीं । यदि मैं अपने प्राण है। मोह पोच देंगी, तो फिर तेरा हाथ पाँव जोड़ना कुछ काम न आवैगा| ( अर्थ )---अपनी रार (वा [तुझसे] बौली जाती है( मुझे बोलना पड़ता है), तुझ पर [ इस बोलने का ] क्या निहोरा (पदसान ) है, [ कुछ मैं तेरी सुश्रूषा से प्रसन्न हो कर नहीं बोलती हैं कि इसका एहसीम तुझ पर हो। मैं तो केवल अपने प्राणों की रक्षा के निमित्त तुझसे बोलती हैं, क्योंकि ] [ तो ] मेरे जी को प्यारा है, [और ] मेरा जी मुझे प्यारा है ॥ रह्यौ चकितु चहुँघा चितै चितु मेरी मत भूलि ।। मूर उर्दै आए, रही इगेनु साँझ सी लि ॥ ४१० ॥ साँझ सी फूलि-सूर्यास्त के समय जो लोली पश्चिम दिशा में हो जाती है। उसकी वाक्य व्यवहार में संझ फूलना कहते हैं । ( अंबतरण )-खेती नायिका को उङ्गि नायक से ( अर्थ )-[ तुम मेरे यहाँ ] आए [ हैं। ] सूर्य के उगने परे हों, [ परे तुहारी] आँखों में साँझ सी फुले रही है ( लाली छा रही है ), [जिससे विक्ति होती हैं कि तुम रात भर किसी अन्य स्त्री के साथ जागे ही। अंतः 1मेरी चकित (विस्मित) चित्त [ प्रातःकोले तथा संध्या, दोनों की एक साथ ही देखे ] मति ( बुद्धि ) भूले के चारों ओर देख ही है कि वास्तव में इस समय सूर्य उदयविंल पर हैं अथवी अंतीम पर ] ॥ १ जेय ( ३, ५ ) । २. उदै ( २, ३, ४, ५ )।