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विवारी-राकर १६५ दुःसह जलाने वाली समझ, [ क्योंकि ] उसके ( पावक-झर के) [ तो ] स्पर्श से देह जलती है, [ पर ] इसको (मेघ की झड़ी कर ) आँखों ही से देख कर ॥ चलित ललित, श्रम-स्वेदकन-कलित, अरुन मुख रौं न । बन-बिहार थकीतरुनि-खरेथकाए नैन ॥ ४०३ ॥ ललित, अम-स्वेदकनकलित, अरुन-ये तीन मुख के विशेषण हैं ॥ बन-बिहार समिक्षरेकाप--यह सब एक समस्त पद है, और 'नैन' शद का विश पण । इसका अर्थ हुआ, वन-विहार में थकी हुई तरुणी के द्वारा भली भाँति थकाए हुए । | ( अवतरण )-वनविदार मैं, श्रम के कारण, नायिका के मुख पर जो लाली तथा पसीने की ५६ आ गई हैं, वे नायक को उसी अच्छी लगती हैं कि उसके नयन उसके मुख पर से टलते नहीं। सखी-वचन सखी से ( अर्थ )-वन-विहार से थकी हुई तरुणी [ की शोभा ]के द्वारा खरे ( भली भाँति) थकाए हुए ( मोहित किए हुए ) [ नायक के ] नयन ललित ( सुंदर ), श्रम-स्वेदकनकलित ( परिश्रम से निकले हुए पसीने की बूंदों से मंडित ), [ तथा ] अरुण (लाल) मुख से चलित नहीं [ होते ]॥ , , ये दोन शब्द पृथक् पृथक् हैं। यहाँ 'K' पंचमी की विभक्ति है । कुढेगु कोपु तजि रंग-रली कराँत जुवति जगे, जोइ । पावस, गूढ़ में बात येह, बूढनु हुँ रँगु होइ ॥ ४०४ ॥ आँ-रक्षा के आनंद-क्रीडा ॥ जइ = देख ॥ गढ़ =बिपी ।। बुढ्नु-ब्रज में पावस की बुदिया अथवा डोकरी चंद्रवधू अर्थात् वीरबहूटी के कहते हैं। केवल बूढ़' शब्द भी उसी अर्थ में प्रयुक्त होता है। उसी का बहुवचन ‘बूदनु हुा । यह शब्द यहाँ श्लिष्ट है। इसका एक अर्थ तो बूढों को है, और दूसरा अरबमय को ।। ( अवतरण )--मानि नायिका का मान छुड़ाने के निमित्त सखी कहती है कि पारस ख हैं तो वहीं का भी अनुराग उत्पन्न होता है, फिर तेरी सी युवतियों को ऐसे समय मान करना सर्व अयोग्य है, क्योंकि अनुराग के उद्गार के सन्मुख उसका स्थिर रहना असंभव है-- | ( अर्थ )-- यह बात गूढ़ ( छिपी हुई ) नहीं है [ कि ] पावस ( वर्षा ऋतु ) में वयों (१. बडढों” । २ . बीरबहूदियों ) में भी रंग ( १. अनुराग । २. रक्त-वर्ण ) होता है (क्स्पन्न होता है), [ फिर युवतियों की तो बात ही क्या ] । देख, कुढगे (बुरी रीति थाले } कोप( ब्रेक, मान ) को ले कर जग में युवाँ ( युवा अवस्था वाली सियाँ) -रली कर रही हैं, [ अतः तेरा भी ऐसा ही करना उवित है ] » --- - ---- १, चालत ( १, २, ५) । २. खरे ( ? ) । ३. करत ( १, ३), कर जुवती ( ५ ) । ४. जरी ( १ ) ५. इह ( ३, ५ ) ।