१६० विहारी-रत्नाकर ‘रनितशृंग-घंटावली' एवं 'झरित दान मधु-नीरु', इन दोन समस्त पर्यों मैं बहुव्रीहि समास है, और ये दोन ‘कुंज-समीर' के विशेषण हैं॥ रही रुकी क्यों हैं सु चेलि, आधिक राति पधारि । हरति ताप सब यस कौ उर लगि यारि बयारि ॥ ३८९ ॥ ( अवतरण )-कवि ग्रीष्म ऋतु की उस शीतल वायु का वर्णन करता है, जो कि राजपूताने मैं बाधा अर्ध रात्रि के समय चलती है, जैसे कि हरिद्वार में संध्या के पश्चात् ठंढी वायु का झाँका चलता है ( अर्थ १ )--[ दिन भर तथा अर्धरात्रि तक जो] रुकी रही, सो प्रेमपात्री-रूपी वायु किसी प्रकार चल कर, आधी रात को पधार कर [ और ] हृदय से लग कर, सब दिवस का ताप हरती है ॥ अथवा इस दोहे को मुकरी मान कर इसको इस प्रकार अर्थ करना चाहिए| ( अर्थ २ )-[ नायक स्वगत कहता है कि दिन भर तथा आधी रात तक जो ] रुकी रही, सो किसी प्रकार चल कर, आधी रात को पधार कर [ और ] हृदय से लग कर सब दिवस का ताप हरती है । [यह सुन कर उससे कोई प्रश्न करता है कि क्या] 'यार' ( प्रेमपात्री ) १ [ नायक सच्ची बात को छिपाने के लिये उत्तर देता है कि नहीं,] 'बयारि' (वायु ) ॥ चुवतु स्वेद मकरंद-कन, तरु-तरु-तर बिरमाइ। आवतु इच्छिन देस हैं थयौ बटोही बाइ ॥ ३९० ॥ शुवतु–यह अकर्मक क्रिया यहाँ सकर्मक रूप से प्रयुक्त हुई है ।। बिरमाइ = विराम कर के, विश्राम ( अवतरण )-कवि शीतल, मंद, सुगंध दाक्षिणानिल का वर्णन, बटोही से रूपक कर के, करता है | ( अर्थ )-मकरंद कण-रूपी स्वेद ( पसीने की बूंदें ) चुअता हुआ, वृक्ष वृक्ष के नीचे विराम कर के, थका हुआ वायु-रुपी बटोही दक्षिण देश से आ रहा है। मकरंद-कण चुआने से पवन को सुगंधि-गुण, वृक्ष के नीचे ठहरने से शीतलत्व एवं थके हुए होने से मंद गमन व्यंजित होता है ।। पतवारी माला पकरि, और न कछु उपाउ । तरि संसार-पयोधि कौं, हरि-नावें करि नाउ ॥ ३९१ ॥ ( अवतरण )-भक्त की उक्ति मन से, अथवा गुरु की उक्ति शिष्य से-- १. नहीं (२) । २. चली ( १ )। ३.१ चल्यौ (१,२) । ४. चल्यो (४)।