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बिहारी-रत्नाकर

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विहारी-रत्नाकर पर चढ़ कर देख ] । जहाँ [ तूने उसे ] देखा ( जैसे ही तू उसे देखेगी ), [ वहाँ तेरे ] दृगों ने [ सब] दुःख का ताप तजा (वैसे ही तेरी आँखें सब विरह का ताप छोड़ देगी ) ॥ जो नायक का मुखचंद सखी नायिका को दिखाया चाहती है, उसमें अपर्वताएँ ये हैं-प्रथम तो द्वितीया को चंद्रमा केवल दो कक्षा का होता है, पर वह पूर्ण है; दूसरे, द्वितीया के चंद्र का दर्शन पाश्चिम दिशा में होता है, पर वह पूर्व दिशा में है; और तीसरे, चंद्र-दर्शन से विरहिणी का संताप बढ़ता है, पर उसके दर्शन से ताप का शमन होगा ॥ लरिका लैबे * मिसनु लंगरु मो ढिग आइ । गयौ अनाचक अगुरी छाती छैलु छुवाइ ॥ ३८६ ॥ लंगरु=ढीठ ॥ छैलु = चतुर ।।। ( अवतरण )-क्रियाचतुर नायक की चातुरी का वर्णन परकीया नायिका अपनी अंतरंगिनी सी से करती है ( अर्थ )-[ मेरी गोद से ] लड़का लेने के व्याज से [ वह ] लंगर मेरे पास आ कर अचानक [ मेरी ] छाती में छैल अँगुली छुआ गया । दीयौ दै बोलति, हँसति पोढ़-बिलास अपोढ़ । त्या त्यों चलत न पिय-नयन छकए छकी नवोढ़ ।। ३८७ ॥ (अवतरण )-नई ब्याही आई हुई नायिका को मद्य-पान करा कर सखियाँ ने, अथवा नायक हरी ने, ऐसी मतवाले कर दिया है कि, थड़े वय की होने पर भी, वह प्रौदा की भाँति हँसने बोलने सगी है। उसकी वह शोभा नायक को ऐसी भली लगती है कि उसके नेत्र उस पर से टलते नह। सखी-वचन सखा से-- | ( अर्थ )-[ देखो, ज्यों ज्यों ] प्रौढ़ के से विलास करने वाली [ यह ] 'अपो।' (विना पकी हुई अवस्था की ) [ नायेक ] दिठाई कर के हँसती बोलती है, त्यो त्यों [ इस ] मद-छकी नवाढ़ा के द्वारा छकाए गए (नशे में किए गए अर्थात् छवि देखने की चाह से पूरित किए गए) प्रियतम के नयन [ इस पर से ] चलते ( टलते ) नहीं ॥ रेनितशृंग-घंटावली, झरितै दान मधु-नीरु । मंद मंद आवतु चल्यौ कुंजरु कुंज-समीरु ।। ३८८ ॥ रनित= पूँजते हुए ॥ दान=हाथी का मद ॥ मधु-मकरंद, पुष्प-स ॥ (अवतरण )-कवि वसंत की सुखद वायु का वर्णन करता है ( अर्थ )-शूजते हुए अमरों की घंटापली वाला [ एवं ]मकरंद-रुपी झरते हुए मर वाला कुंज-समीर-रूपी कुंजर मंद मंद चला आ रहा है। १. बतियाँ ( ३, ५) । २. नित (४) । ३. भरत (१, ५)।