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बिहारी-रत्नाकर गई । बस, फिर उसको सौत के गले में पड़ा हुअा अपने ही हाथ का गूथा हुआ वह हर हर-हार हो गया, अर्थात् सर्प सा भयानक लगने लगा । सखी-वचन सखी से | ( अर्थ )-हठ कर के [ तथा ] हित ( प्रेम ) कर के प्रियतम से लिया हुआ हार, जिसको ( जिससे ) सौत ने [ अपना ] श्रृंगार किया, [ वही ] अपने हाथ से मोतियों से गुथा हुआ [ हार नायिका को ] हर-हार ( सर्प) हो गया ( अत्यंत भयानक लगने लगा )॥
बसै बुराई जसु तन, ताही की सनमानु। भलौ भलौ कहि छोड़ियै, खोटैँ ग्रह जपु, दानु॥३८॥
(अवतरण)-कवि की प्रास्ताविक उक्ति है कि जिससे बुराई, अर्थात् हानि, पहुँचने की आशंका होती है, उसी का संसार में आदर होता है, पर सीधे, साधु-स्वभाव सज्जनों को कोई नहीं पूछता-
(अर्थ)—जिसके तन में बुराई बसती है, उसी का [इस बुरे संसार में] सन्मान होता है। [देखो,] भला [ग्रह] तो भला कह कर (समझ कर) छोड़ दिया जाता है, [पर] खोटे ग्रह [के आने] मेँ जप, दान [इत्यादि होते हैं]॥
वै ठाड़े, उमदाहु उत; जल न बुझे बड़वागि । जाही सौं लाग्यौ हियौ, ताही * हिय लागि ॥ ३८२ ॥ उमदाहु-उमदाना उमंग से किसी ओर झुकने को कहते हैं। १७९-संख्यक दोहे में भी यह शब्द ऐसे ही अर्थ में प्रयुक्त हुआ है ॥ बड़वागि ( बाड़वाग्नि )= समुद्र के भीतर की अग्नि । ( अवतरण )-नायक सामने खड़ा है । नायिका उमे देख कर इठलाती तथा सखी से लिपटती झपटती है, जिससे सभी उसका नायक पर अनुराग लक्षित कर के कहती है ( अर्थ )—वे ( नायक ) [ ते। वह ] खड़े हैं [ और तू मुझसे इठलाती तथा मेरी ओर उमगती है, सो यह व्यर्थ है ]। उसी ओर उमंग से झुक । जिससे [ तेरा ] हृदय लगा है, उसी के हृदय से लग। [ देख, ] जल से बाड़वाग्नि नहीं बुझती [ क्योंकि जल में तो वह रहती ही है । तात्पर्य यह कि मुझसे लिपटने से तेरी कामाग्नि नहीं बुझ सकती। वह ते मुझसे अलग हो कर उसी से शांत हो सकती है, जिस पर तेरा हृदय लगा है] ॥ ढीठि परोसिनि ईठि है कहे जु गहे सयानु ।। सवै सँदेसे कहि कह्यौ मुसकाहट मैं मानु ॥ ३८३ ॥ दीठि ( धृष्ट )—पड़ोसिन को ढीठ इसलिए कहा है कि वह ऐसी निडर है कि स्वयं नायिका ही १. सबै ( १, ४) । २. जास ( ३, ५ ) । ३. तन (४)। ४. उमदाउ ( १ ), उमदात ( २, ४) । ५. ही ( ३, ५) ।