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विहारी-रत्नाकर ( अर्थ )-[ तेरे उन ] कुटिल ( वक्र ) कटाक्ष-रूपी बाणों के लगते [ ही नायक] क्यों न बेहाल (चेतना-रहित) हों, जो [ ऐसे विलक्षण है कि यद्यपि ] हृदय को ‘दुसाल। ( दो टुकड़े, आरपार) कर के कढ़ जाते हैं (पार निकल जाते है ), तो भी [ उनके पीड़ा पहुँचा कर विह्वल करने वाले ] नष्ट शल्य रह जाते हैं । | कटाक्ष मैं बार्गों की अपेक्षा यह विलक्षणता है कि टेढ़े बाण लक्ष्य के पार नहीं जाते, उसमें अटक रहते हैं, पर वक्र कटाक्ष हृदय के पार हो जाते हैं, और बाण जब शरीर में लग कर पार से जाते हैं, तो उनके शल्य नहीं रहते, परंतु कटाक्ष पार हो जाने पर भी हृदय मैं खटका करते हैं। जनमु जलधि, पानिपुत्रिमलु, भौ जग अघुि अपारु । रहै गुनी है गर-पखौ, भलै न मुकता-हारु ।। ३७६ ॥ आघु = आदर, सन्मान, मूल्य ।। गर-पयौ = गले पड़ा हुआ, अर्थात् विना चाहना था श्रादर के ॥ ( अवतरण )—किसी सवांग-श्रट मनुष्य के अनादर-पूर्वक भी किसी स्थान पर रहने के विषय मैं, मुक़ा-हार पर अन्योक़ि कर के, कोई किसी से उक्र मनुष्य को सुना कर कहता है ( अर्थ )-[ देखो, इसका ] जन्म [ तो ] जलधि ( समुद्र ) से है [ अर्थात् यह बड़े कुल का है ], पानिप (१.शेभा, चमक । २. आवरू ) विमल (१. निर्मल । २. विना धब्बा लगा हुआ ) है, [ तथा ] जग में अघ ( १. माल । २. आदर ) [ भी ] अपार हुआ, [पर] गुणी (१. डोरा वाला अर्थात् डोरे में गुथा हुआ ।२. गुण वाला ) हो कर मुक्त-हार [ जो ] गले पड़ा (१. गले में पड़ा हुआ । २. निरादर-पूर्वक) रहता है, [ सो ] ‘भले न’ ( भले प्रकार का र गहै न नेकौ गुनगरबु, हँसी सबै संसारु । कुच-उचपद-लालच रहै गर्दै परै हैं हारु ।। ३७७ ।। ( अवतरण )-यह दोहा अपने पूर्व के दोहे का उत्तर-स्वरूप है । जिस व्यक्ति से पहिला दोहा कहा गया है, वह उस निरादर सह कर रहने वाले मनुष्य को लालची ठहराता हुआ तथा उसको सुना कर, उसी मुक्रा-हार पर अन्य कर के, उत्तर देता है-- ( अर्थ )-[ यह ] हार [ जा ] गले पड़ने पर भी रहता है, [ सो ] कुत्ररूपी उस पद के लालच से । इसी लालच के कारण यह ] नक भी [ अपने ] गुण का गर्व नहीं गहता ( करता ), [ इस पर हम तुम क्या ] सारा संसार [ हँसे, ता ] हँसा ॥ तच्यौ अाँच अब बिरह की, रह्यौ प्रेम-रस भीजि । नैननु ” मग जलु है हियौ पसीजि पसीजि ॥ ३७८ ॥ तच्यौ=संतप्त हुआ हुआ, अर्थात् संतप्त हो कर ॥ रणौ प्रेम-रस भीजि = प्रेम-रूपी रस में भीग १. हँसै ( १, ४) ।