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विहारी-रत्नाकर संबंध ] हैं ;[ इटते तो कुटुंब के संबंध हैं, पर ] जुड़ते ( मिलते ) चतुरों के चित्त हैं ; [ और जुड़ते तो चतुरों के चित्त हैं, पर ] गाँठ दुर्जनों (चवाइयाँ) के हृदयों में पड़ती है। हे दई, यह नई ( विलक्षण ) रीति है ॥ सामान्यतः तो जो वस्तु उलझती है, वही टूटती तथा जोड़ी जाती है, और फिर गाँठ भी उसी मैं पड़ती है, पर प्रीति व्यवहार में विलक्षणता यह है कि उलझती और वस्तु है, टूटती और है, जुवती और है, एवं गाँठ और मैं पड़ती है। नहिँ नचाइ चितवति दृगनु, नहिँ बोलति मुसकाइ । ज्य ज्यौं रूखी रुख करत, त्यौं त्यौं चितु चिकनाई ।। ३६४ ॥ रुख-इस शब्द के अर्थ तथा लिंग के विषय में २४३-संख्यक दोहे की टीका द्रष्टव्य है ।। ( अवतरण )-प्रौढ़ा धीरा नायिका नायक को सापराध जान कर उदासीन वेष्टा से अपना मान व्यजित करती है। शठ नायक उसे प्रसन्न करने के लिये मीठी बातें बनाता है ( अर्थ )-[ हे प्यारी, तू आज ]न [ तो ] इगों को नचा कर (चंचल कर के) देखती है, [ और ] न मुसकिरा कर बोलती है । [ तेरी यह चेष्टा मुझे ऐसी सुहावनी लगती है कि] ज्यों ज्यों [१] रुख ( मुख की चेष्टा ) रूखी ( उदासीन, सरोष ) करती है, त्यों त्य [ मेरा] वित्त चिकनाता( स्निग्ध होता ) है ॥ वैसीयै जानी परति झगा ऊजरे माह । मृगनैनी लपटेत जु सँह बेनी उपटी बाँहें ॥ ३६५ ॥ ( अवतरण )-खंडिता नायिका की उङ्गि नायक से ( अर्थ )-[ हे लालन, उस ] मृगनयनी के लिपटते समय जो यह बेनी (चोटी) [ तुम्हारी ] बाँह में उपट आई है ( मुद्रित हो गई है ), [ वह ] श्वेत झगा में वैसी ही (ज्यों की त्यों ) जान पड़ती है ( प्रकट होती है)। [ अर्थात् तुम किसी स्त्री को अभी अभी आलिंगन कर के आ रहे हो, अभी इतना समय भी नहीं बीता है कि उसकी चोटी की छाप कुछ मिट जाती ] ॥ । प्यासे दुपहर जेठ के फिरे सबै जलु सोधि । मरुधर पाइ मतीरु हीं मारू कहत पयोधि ॥ ३६६ ॥ ( अवतरण )-कवि की उक्ति है कि जहाँ जो वस्तु दुर्लभ है, वहाँ यदि वह, किसी रूप में, थोडी भी मिल जाय, तो उसको लोग बहुत समझते और उस पर अभिमान करते हैं | ( अर्थ )-जल सेध ( खोज ) कर सब [ अकृतकार्य ] लौटे हुए जेठ के प्यासे मारू | १. माँहि ( ३, ५ ) । २. लपटी ( २ ) । ३. हिय ( ३, ४, ५ ) । ४. वाँहि (३) । ५. विषम बुवादित की तृषा ( १, २) । ६. रहे (१,२), थडे (४) । ७. मुर ( २, ३, ५ )। ८. है(१), (५ )।