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बिहारी-रत्नाकर

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बिहारीरत्नाकर सबसे, उनके वन्न पकड़ कर तथा अनेक हाव भावों के साथ हठ कर के, पारितोषक माँगती है। इसी पारितोषिक को ‘फगुवा', अर्थात् फाग का उपहार, कहते हैं । | ( अवतरण )-किसी वैसिक नायक का वर्णन कवि करता है कि फगुहा की मंडली में गाणका के पारितोषिक माँगते समय, यद्यपि फगुआ देने मैं उसको कृपणता अथवा द्रव्याभाव इत्यादि बाधक नहीं हैं, तथापि उसे गणिका के हाव भाव पर वह ऐसा लुभा रहा है कि उससे फगुआ देते नहीं बनता ( अर्थ )-ज्यों ज्यों [ वह नर्तकी नायक का ] पट झटकती, [ फगुआ लेने के निमित्त] हठ करती, हँसती, [ और ] नयन नचाती है, त्यो त्यों परम उदार [ नायक ] से भी [ उसके हाव भाव पर लुब्ध होने के कारण ] फगुवा देते नहीं बनता ॥ ज्य ज्यौं पावक-लपट सी तिय हिय सौं लपटादि । त्य त्यौं छंही गुलाब मैं छतिया अति सियराति ॥ ३५४ ॥ छुही = लिपी हुई, सिँची हुई ।। मैं = सदृश शब्द से ‘सइ' और 'सह' से 'सै' बना है । सै' का सानु नासिक उच्चारण भाषा विशेष की विशेषता मात्र हो । सियराति = ठंढी होती है । ( अवतरण )-सी-आलिंगन के सुख का अनुभव कोई भंगारी पुरुष किसी भोग-विरोधी पंचाग्निसेवी से, अथवा स्वगत, कहता है ( अर्थ )-ज्यों ज्यों पोषक-लपट ( अग्नि-ज्वाला ) सी ( अग्नि-ज्वाला की सी कांति वाली ) स्त्री हृदय से लिपटती है, त्यों त्यों गुलाब-जल से सिँची हुई सी [ हो कर ] छाती अति शीतल होती है ॥ अग्निज्वाला सी स्त्री के लिपटने से छाती का ठंडा होना, यही विलक्षणता है ॥ भाल-लालथेंदी-छ? छुटे यार छवि देत । गयौराहु, अति हु करि, मनु ससि सूर-सभेत ॥ ३५५ ॥ आडु ( श्राव ) = ललकार, युद्ध के निमित्त किसी को प्रचारना ।। ( अवतरण )-नायिका ने स्नान कर के सौभाग्य की चिह्न सात बँदी तो सगा ली है। पर बाल अभी गूथे नहीं हैं, जिससे कुछ बाल भाल पर छिटके हुए हैं। उनकी शोभा सखी मायक से वर्णन करती हुई, सूर्य तथा चंद्र दोनों के ग्रहण का एक साथ होना कह कर, रति-दान के निमित्त परम उपयफ समय सूचित करती है । ( अर्थ )-[ उसके ! छुटे हुए बाल भाल [ तथा ] लाल पेंदी को छाए हुए [ ऐसी ] शोभा देते हैं, मानो राहु ने बड़ा आडु ( ललकार अथवा युद्ध ) कर के शशि को सूर्य-समेत पकड़ लिया है (अर्थात् इस समय चंद्र-ग्रहण तथा सूर्य ग्रहण, दोनों लगे हुए हैं ) ॥ -- --- . १. फुही ( २ ) । २. सै ( १ ), की ( २ ), से ( ३ ), से (४)। ५. दियॆ ( २ ), दिए (४), वे ( ३, ५)।