पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/१८९

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बिहारी-रत्नाकर


विहारी-रत्नाकर है, उसी के अनुसार मुट्ठी में पदार्थ लिया जाता है। इस दोहे में गुलाल की मूठि सौ गई मूठि सौ मारि' कहा गया है, जिससे अनुराग उत्पन्न करने के निमित्त मूठ का चलाना व्यंजित होता है । ( अवतरण ) -- नायिका ने नायक पर जिस भाव से गुलाल की मूठ चलाई है, उसका वर्णन नायक, उसकी सखा अथवा अपने अंतरंग सखा से कर के, उससे मिलाने की युक्कि करने की प्रार्थना करता है | ( अर्थ )-[ वह मेरी ओर ] पीठ दिए ही ( विना मेरे सन्मुख हुए ही ), किंचिन्मात्र मुड़ कर, [ तथा एक ] हाथ से बूंघट के पट को टाल कर ( कुछ हटा कर ) गुलाल की मूठ से, भर कर, मूड सी मार गई । गुनी गुनी सबकैं कहैं निगुनी गुनी न होतु । सुन्यौ कहूँ तरु अरक हैं अरक-समानु उदोतु ॥ ३५१ ॥ तरु अरक ( तर अर्क )= तरु-रूप-धारी अर्क अर्थात् मदार का वृक्ष । ( अवतरण )-कधि की प्रास्ताविक उक्रि है कि निर्गुणी मनुष्य लोगों के गुणी गुणी करने से गुणी नहीं हो सकता .. ( अर्थ )—सवके गुणी गुणी कहने से निर्गुणी गुणी नहीं हो जाता । [ क्या अर्क कहलाने ही से ] कहीं तरु अर्क ( वृक्ष वाले अर्क अर्थात् मदार ) से अर्क ( सूर्य ) के समान प्रकाश सुना गया है। छुटत मुठिनु सँग हाँ छैटी लोक-लाज, कुल-चाल । लगे दुहुनु इक ओर ही चल चित, नैन गुलाल ॥ ३५२ ॥ ( अवतरण )-फाग के खेल में नायक नायिका परस्पर अनुरक्र हो गए हैं। उसी का वर्णन सखियाँ आपस मैं करती हैं | ( अर्थ )-[गुलाल-भरी ] मुट्टियों के छूटने के साथ ही लोक की लज्जा [ तथा ] कुल की रीति छूट गई, [ और ] दोनों को चल चित्त [ तथा ] नेत्रों में एक साथ ही [ दोनों के ] गुलाल लगे ॥ थिस-पक्ष में गुलाल का अर्थ अनुराग होगा ।।। ज्यौं ज्यौं पटु झटकति, हठति, हँसति, नचावति नैन । त्य त्यौं निपट उदारहूँ फगुवा देत बनै न ॥ ३५३ ॥ हठति = हठ करती है, पारितोषिक लेने के निमित्त अड़ती है ॥ फगुवा-फाग के दिनों में इष्ट मित्र एकत्रित हो कर रंग गुलाल खेलते और फिर बैठ कर नाच-रंग देखते हैं। उस समय नाचने वाली गणिका १• छुटे ( १, ४, ५ ), छुटे (३)। २. सगै ( ३ )।