पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/१८७

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बिहारी-रत्नाकर


१४४ विहारी-रत्नाकर (अवतरण )- नई ब्याह कर आई हुई, रूप-गुण-गर्विता नायिका ने नायक को सुघर सौत के वश में सुन कर अपनी प्रसन्नता प्रकट की । कारण, उसने सोचा कि यदि नायक को सुधर जी के वश में होने की बान हैं, तो मैं उसे अवश्य ही अपने वश में कर लँगी, क्र्योंकि मुझसे बढ़कर सुंदर सथा सुधर कौन हो सकती है। सखी-वचन सखी से ( अर्थ )--प्रियतम को सुघर सौत के वश में सुन कर दुलहिन ने दूने हुलास (उमंग) से [ अपने ] शरीर पर सगर्व (अभिमान-सहित ), सलज ( लज्जा-युक्त ) [ तथा ] सहास (मुसकिराहट के साथ ) दृष्टि डाल कर सखी को देखा ॥ ‘सगरब' से सौंदर्य, सलज' से यावन का ज्ञान तथा 'सहास' से सौस के गुण का उपहास व्यंजित होता है ॥ लिखन बैठि जाकी सबी गहि गहि गरब गरूर । भए न केते जगत के चतुर चितेरे कूर ।। ३४७ ॥ सबी (अरबी शबीह )= यथार्थ चित्र ॥ गरब गरूर = इस युग्म प्रयोग में टीकाकारों ने प्रायः अर्थपुनरुक्ति समझ कर कई युक्तियों से उसके परिहार की चेष्टा की है । पर हमारी समझ में उन युक्तियों की कोई आवश्यकता नहीं । भाषा में एक ही, अथवा कुछ भिन्न, अर्थ वाले दो शब्दों के एक साथ प्रयोग करने की प्रथा बहुत पुरानी है । इस समय भी ऐसे युग्मों का प्रयोग बहुतायत से होता है, जैसे राजा राव, इष्ट मित्र, गाँव गिराइँ, भाई बंधु, हवा बयार, पान पत्ता, जान पहचान, काम काज इत्यादि । कभी कभी ऐसे युग्मों में एक शब्द भारती भाषा का तथा दूसरा फ़ारसी अथवा अरबी का होता है, जैसे राज रियासत, धन दौलत, बाजार हाट, गली कूचा, राम रहीम, भाई बिरादर, गए गुजरे, हरबा हथियार इत्यादि । इसी प्रकार ‘गरब' ( गर्व ) भारती तथा 'गरूर' ( गुरूर ) अरबी शब्दों का युग्म इस दोहे में प्रयुक्त किया गया है। इस प्रयोग में न तो पुनरुक्ति दूषण है, और न ‘गरूर' शब्द का अर्थ मगरूर ( गुरूर वाला ) करने की कोई आवश्यकता ।। कुर-भाषा में यह शब्द संस्कृत के दो भिन्न भिन्न शब्दों से बनता है-एक तो क्रर रो, जिसका अर्थ निदय होता है, और दूसरे कुट्ट धातु से, जिसका अर्थ कुटी हुई, अर्थात् विदलित, बुद्धि वाला होता है। इस दोहे में ‘क्रर' का अर्थ है, विदलित अथवा विकृत बुद्धि वाले ॥ ( अवतरण )-अंकुरितयौवना नायिका की सखी नायक से उसके क्षण क्षण पर बढ़ते हुए यौवन तथा शरीर-कांति की प्रशंसा यह कह कर करती है कि बड़े बड़े चतुर चितेरे भी इस समय उसका यथार्थ चित्र नहीं बना सकते, क्योंकि उसकी शोभा प्रतिक्षण ऐसी बढ़ती जाती है कि जब कोई चितेरा उसका चित्र बना कर उससे मिलता है, तो, इतने ही समय मैं उसके शरीर में परिवर्तन हो जाने के कारण, वह चित्र उससे नहीं मिलता । अतः उस चितेरे को मूढ़ बनना पड़ता है ( अर्थ )-[ भला मैं बेचारी उसकी तिक्षण बढ़ती हुई शोभा का वर्णन क्या कर सकती हैं,] जिसको यथार्थ चित्र लिखने के निमित्त घमंड [ तथा ] अभिमान से भर भर कर बैठ जगत् के कितने चतुर चितेरे कूर ( मूढ़मति ) नहीं हुए ( ठहरे ) ॥