पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/१८५

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बिहारी-रत्नाकर


१४२ विहारी-रत्नाकर (कुछ विशेष ) होती है। जलचादर के [ पीछे रक्खे हुए ] दीपकों की भाँति [ उसके ] तन की ज्योति जगमगाती है । कोरि जतन कोऊ करौ, परै न प्रकृतिहिँ बीचु । नल-थल जलु ऊचें चढ़े, अंत नीच कौ नीचु ॥ ३४१ ॥ वीचु = भेद, अदल बदल ।।। ( अवतरण )–वि की प्रास्ताविक उक़ि है कि जिसका जो स्वभाव होता है, वह यन्न करने से भी नहीं बदलता ( अर्थ )-कोई कोटि यत्न किया करो, [पर प्रकृति में भेद नहीं पड़ता । [ देखो, ] नल के वल से [ यद्यपि फुहारे का ] जल उँचाई पर चढ़ता है, [ तथापि ] अंत को नीच का नीच ही [ होता है, अर्थात् फिर नीचे ही गिरता है ] ॥ लगत सुभग सीतल किरन, निसि-सुख दिन अगाहि । माह ससी-भ्रम सूर-त्यौं रहति चकोरी चाहि ॥ ३४२ ॥ सुभग= कोमल, सुकुमार, सुंदर ।। अवगाहि= डूब कर, निमग्न हो कर ॥ माह =माघ मास ॥ त्य ( तनु ) = ओर, दिशि ।। ( अवतरण )-कवि माघ महीने के तीव्रताप-रहित सुखद सूर्य का वर्णन करता है ( अर्थ )--सुभग [ तथा ] शीतल किरणों के लगते हुए ( लगने से ), दिन को रात्रि के सुख में निमग्न हो कर, माघ [ मास ] में, चकोरी चंद्रमा के भ्रम से सूर्य की ओर घाह रहती (देखा करती ) है ॥ तपैन-तेज, तपु-ताप तपि, अतुल तुलाई माँह। सिसिर-सीतु क्याँहुँ न कंटै बिनु लपटें तिर्य नाँह ॥ ३४३ ॥ तपन = सूर्य । तपु ( तपुस्) = अग्नि । तपि = तप कर ।। अतुल = जो तौली न जा सके, अर्थात् बहुत भारी ।। तुलाई = रजाई, सौड़ ।।। ( अवतरण )-मानिनी नायिका से सखी कहती है कि शिशिर ऋतु का शीत विना स्त्री पुरुष के लिपटे किसी प्रकार नहीं कटता, अतः ऐसी ऋतु मैं मान करना उचित नहीं है ( अर्थ )-शिशिर का शीत, स्त्री पुरुष के लिपटे विना, तपन के तेज [ अथवा ] तपु १. ऊँचौ ( २, ३, ५ ) । २. अंति ( १, ५ ) । ३. निसि दिन सुख अवगाह ( २, ४) । ४. ज्यो (४)। ५. तनत तेज तप ताप ते ( १ ), तपन तेज तपि तापि तपि ( २ ), तपन तेज तापन तपति ( ३, ५), तपन तेज तपता तपति ( ४ )। ६. तूल ( २ ) । ७. ससिर ( २, ३, ५ ) । ८. घटै ( २ ), मिटै ( ३, ५ )। ६. उर ( २ ), पिय-बाँहि ( ३, ५ )।