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बिहारी-रत्नाकर

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बिहारी-रत्नाकर १३॥ फिर वह [ उसके ] घटते घटते घटता नहीं, प्रत्युत समूल ( मूल-सहित ) कुम्हिला जाता है ( नष्ट हो जाता है ) ॥ ह्याँ न चलै, बलि, रावेरी चतुराई की चाल । सनख हियँ खिने-खिन नटत अनख बढ़ावत, लाल ॥ ३३२॥ ( अवतरण )-प्रौढ़ा खंडिता अधीरा नायिका का वचन नायक से ( अर्थ )-हे लाल, मैं आपकी बलि गई, यहाँ ( मेरे आगे) आपकी चतुराई की चाल ( ढंग ) न चलेगी। सनख हृदय से (नख-क्षत-युत हृदय होने पर भी ) क्षण क्षण पर नटते ( मुकरते ) हुए [ आप मेरी ] अनख ( क्रोध ) बढ़ाते हैं ॥ डीठ न परतु समान-दुति कनकु कनक मैं गात । भूषन कर करकस लगत परंसि पिछाने जात ॥ ३३३ ॥ ( अवतरण )—सखी नायक से नायिका के शरीर की दीप्ति की प्रशंसा करती है ( अर्थ )-[ उसके ] कनक से गात्र में समान दुति याला सोना दिखलाई नहीं पड़ता (उसके सुनहले रंग में वैसे ही रंग का सेना छिप जाता है)। [ पर] हाथ में कर्कश लगते हुए भूषण स्पर्श कर के पहचाने जाते हैं ॥ करतु मलिन अाछी छबिहिँ, हरतु जु सहज बिकासु। अंगरागु अंगनु लँगै, ज्य आरसी उसाँसु ॥ ३३४ ।। अंगरागु = मृग-मद: चंदन, केसर इत्यादि से बनाया हुया सुगंधित लेप विशष ॥ ( अवतरण )--सखी नायिका के शरीर का विमलता की प्रशंसा नायक से करती है ( अर्थ )-अंगराग [ उसकी ] अच्छी छवि को मालन कर देता [ तथा उसका ] जो स्वाभाविक विकास (प्रकाश ) है, [उसको ] हर लेता ( छिपा लेता ) है; [ उसके ] अंगों में [ वह ऐसा ] लगता है ( प्रतीत होता है ), जैसे अरसी में [ लगा हुआ ] उच्छास [ प्रतीत होता है ] ॥ । पहिरि न भूषन कनक के, कहि आवत इहिँ हेत । दरपन के से मोरचे, देह दिखाई देत ॥ ३३५॥ मोरचे = लोहे के किसी पदार्थ पर नमी पहुंचने से जो मैल सा जम जाता है, उसे मोरचा कहते हैं । प्राचीन काल में दर्पण लोहे पर जिला कर के बनाया जा था। अतः उसमें नमी से मोरचा लग जाता था। कभी कभी लोहे इत्यादि के संसर्ग से कांच के दर्पण पर भी मीरचा लग जाता है ।। १. राउरी ( ३, ५) । २. सन-खन ( १, २, ४) । ३. दीठि ( ;) । ४. परस ( १, ३, ४, ५ ) । ५. सु ( १ ) । ६. सगैं (१, लग्यो (४, ५ ) | ७. उजास ( १, ३, ५ ) ।