१३८
बिहारी-रत्नाकर उहड़हौ =हराभरा ॥ जवासौ = एक प्रकार की घास, जो पानी बरसने पर जल जाती है । जौ ( जव ) = जपा, गुड़हर । इस शब्द का अर्थ किसी ने जड़ कर के यह अर्थ किया है कि जवासे की डाल और पत्तियाँ तो जल जाती हैं, पर उसकी जड़ जम, अर्थात् पुष्ट हो जाती है । इस अर्थ में एक ही वृक्ष के एक अंग का जलना और दूसरे अंग का जमना सिद्ध होता है । पर देह और नेह में वह संबंध नहीं है, अतः यह अर्थ असंगत है । किसी ने, 'ज' का अर्थ यत्र मान कर, इस दोहे पर काल-विरुद्ध दूषण का आरोप किया है, क्योंकि जवासा ग्राषाढ़ में जलता है, अॅार यव कार्तिक में जमता । बिहारी को यव के जमने का काल न ज्ञात रहा होगा, यह मान लेना युक्ति-युक्त नहीं प्रतीत होता । अतः ‘ओं' का अर्थ जवा अर्थात् जवाकुसुम अथवा जपाकुसुम ही करना संगत हैं। जपाकुसुम का रंग भी लाल होता है, अतः स्नेह ( अनुराग ) के डडहे होने का दृष्टांत जपा वृक्ष के लहलहाने से देना परम समीचीन हे । यद्यपि जपाकुसुम पानी इत्यादि देते रहने से और ऋतुओं में भी कुछ कुछ झूलता रहता है, पर इसका वृक्ष स्वभावतः ग्राषाढ़ का भेह बरसने पर ही हराभरा हो कर विशेष रूप से फूलता है, अॅार उसके नए पौधे भी विशेषतः उसी समय जमते हैं ॥
( अवतरण )-प्रोतिपतिका नायिका विरह से अत्यंत क्षीण हो रही है, पर उसका स्नेह और भी लहलहा रहा है। उसकी यह दशा सखिया आपस में अथवा कोई सखी नायक से कहती है
( अर्थ )-विरह ने [ उसकी ] देह सुखा डाली है, [ और उसके ] स्नेह को अत्यंत डहडहा कर दिया है, जैसे भेह बरसने से जवासा जल जाता है, [ और ] जौ ( जवा, जपाकुसुम ) जमता है ( उग आता है, नए कल्लों से संपन्न हो कर फूल उठता है ) ॥
ॐ दोहा छ । देख सो न, जु ही फिरत सोनजुही मैं अंग ।
दुति-लपटनु पट सेत हूँ कति बनौटी रंग ।। ३३० ॥ बनौट रंग = कपासी रंग । बन एक प्रकार के कपास को कहते हैं, जिसका फूल हलका पीला होता है। उसी के फूल के रंग के सदृश रंग को कपासी अथवा बनौटी रंग कहते हैं ।
| ( अवतरण )-किसी दूत ने नायक से नायिका की शरीर-कांति की प्रशंसा की थी, और फिर उसे किसी वाटिकादि मैं भ्रमण करते दिखला भी दिया था। अब वह नायक से कहती है कि अब तो तुमने उसे देख ही लिया, मेरी की हुई प्रशंसा ठीक थी न ?
| ( अर्थ )-[ अब तो तुमने ] वह [ नायिका ] देख न ली, जो सोनजुही के सदृश अंग से कांति की लपटों ( झलकों ) के द्वारा [ अपने ] स्वेत पट को भी बनौट रंग का करती हुई फिरती थी ॥
बढ़त बढ़त संपति-सलिलु मन-सरोजु बढ़ि जाइ ।
घटत घटत सु न फिरि घटै, बरु समूल कुम्हिलाइ ॥ ३३१ ॥ ( अवतरण )-कवि की प्रास्ताविक उक्रि है( अर्थ )—संपत्ति-रूपी सलिल बढ़ते बढ़ते मन-रूपी कमल बढ़ जाता है । [ किंतु ]
१. लपटत ( ३, ५) । २. होत केसरी ( ३, ५ )।
पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/१८१
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
१३८
बिहारी-रत्नाकर