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संपादकीय निवेदन

है। सर्वप्रथम सुपरिचित, सहृदय सुकवि बिहारीदास की सुप्रसिद्ध सतसई का सुंदर, सटीक और संशोधित संस्करण ही साहित्य-संसार की सेवा में समुपस्थित किया जाता है। गोस्वामी तुलसीदासजी के रामचरितमानस के बाद शायद सतसई ही समस्त सुशिक्षित-समाज में सबसे अधिक समादृत हुई है। जितना शृंगार-रस-वाटिका के इस सुविकसित और सुगंधित सुमन का सौंदर्य सहृदयों के चित्त में चुभा और आँखों में खुबा है, उतना औरों का नहीं। अन्यान्य अनेक कवियों की कविता-कामिनियाँ भी कमनीयता में कम नहीं। किंतु सतसई-सुंदरी की-सी सुंदरता उनमें कहाँ? इस सुंदरी की सरस सूक्ति-चितवनों के विषय में तो मानो स्वयं कवि ने ही कह दिया है—

अनियारे दीरघ दृगनि किती न तरुनि समान;
वह चितवनि औरै कछू, जिहि बस होत सुजान।

सतसई के सुविस्तृत सम्मान के प्रमाण में इतना कह देना ही पर्याप्त होगा कि इस पर पचासों टीकाएँ बन जाने पर भी यह क्रम अभी तक जारी है। 'बिहारी-रत्नाकर' अंतिम और, हमारी राय में, सर्वोत्कृष्ट टीका है।

शृंगारी कवियों में बिहारी का स्थान बहुत ऊँचा है। नीति, भक्ति, वैराग्य आदि के दोहे भी उन्होंने अवश्य लिखे हैं; किंतु सतसई में प्रधानता श्रृंगार-रस ही की है। प्रत्येक पक्ष उनकी प्रशस्त प्रतिभा का परिचायक है। उच्च कोटि की काव्य-कला, व्याकरण-विशुद्ध, परम परिमार्जित भाषा और वाक्य-लाघव (Brevity) में बिहारी अपना जोड़ नहीं रखते। ऐसे श्रेष्ठ कवि की कविता का समुचित रूप से संशोधन करके उसके गूढ़ तथा सूक्ष्म भाव समझना और स्पष्ट रूप से प्रकाशित कर देना कुछ हँसी-खेल नहीं। इस कठिन कार्य के लिये विशेष विद्या-बुद्धि, काव्य-मर्मज्ञता, सुचिंतन और परिश्रम अपेक्षित हैं। ये सब गुण 'बिहारी-रत्नाकर' टीका के कर्ता में पूर्ण रूप से विद्यमान हैं। तुलसी, सूर, बिहारी, मतिराम, चंद, घनानंद, पद्माकर आदि कवियों का जितना अध्ययन इन्होंने किया है, उतना हिंदी-साहित्य के शायद ही अन्य किसी विद्वान् ने किया हो। बिहारी-सतसई पर तो आपने विशेष रूप से परिश्रम किया है। अतएव उस पर टीका लिखने के आप सर्वथा अधिकारी हैं। आप और कोई नहीं, हिंदी-साहित्य- मंदिर के सुदृढ़ स्तंभ बाबू जगन्नाथदास "रत्नाकर" बी॰ ए॰ हैं।

रत्नाकरजी का जन्म संवत् १९२३ में, ऋषि-पंचमी के दिन, काशी में, हुआ था। आपके पिता का नाम बाबू पुरुषोत्तमदास था। वह दिल्लीवाल अग्रवाल वैश्य थे। इनके पूर्वजों का आदि निवास-स्थान सफ्रोदों (सर्पदमन), जिला पानीपत में था। पानीपत की दूसरी लड़ाई के अनंतर वे अकबर के दरबार में आए, और मुगल-साम्राज्य में ऊँचे-ऊँचे