पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/१७९

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बिहारी-रत्नाकर


विहारी-रत्नाकर प्रकट करते हुए ) हैं, [ और ] भैहे स्वाभाविक रूप से सीधी (कोप से वक्र नहीं ) हैं, तथापि [ तेरे ] खरे ( विशेष, बहुत ) आदर से क्षण क्षण पर हृदय बहुत शौकत होता है॥ जदपि नाहिं नाहीं नहीं बदन लगी जक जाति । तदपि भौंह-हाँसीभरिनु हाँसीयै ठहराति ॥ ३२४ ॥ जक=रट । किसी बात को तार बाँध कर कहना जक लगना कहलाता है ॥ ( अवतरण )–नायक ने मध्या नायिका का हाथ रति-क्रीड़ा के निमित्त पकड़ लिया है। नायिका यद्यपि तज्ञावश मुख से नहीं नहीं करती है, तथापि, उसकी भौंहाँ पर हँसी होने के कारण, उसकी वह नहीं नहीं हँसी ही, अथवा हाँ सी ही, प्रतीत होती है। सखी-वचन सखी से | ( अर्थ )-यद्यपि [उसके] वदन ( मुख ) में नहीं नहीं नहीं की जक लगी जाती है, तथापि [ उसकी ] हँसी-भरी भौंहों से ( भौंहों के कारण )[ वह नहीं नहीं' की रट ] हाँसी ही ( परिहास ही अथवा हाँ सी ही ) ठहरती है ( निर्धारित होती है ) ॥ छुटन न पैयर्तुं छिनकु बसि, नेह-नगर यह चाल । मायौ फिरि फिरि मारियै, खुनी फिरै खुस्याल ।। ३२५ ।। खुनी ( फ़ा० खूनी )= खून करने वाला, अर्थात् किसी को मार डालने वाला ॥ खुस्याल ( फ़ा० खुशहाल ) = सुखी अवस्था में ॥ ( अवतरण )—पूर्वानुरागिनी नायिका अपनी लगन की व्यवस्था, नायक को सुना कर, सखी से कहती है ( अर्थ )-स्नेह-रूपी नगर में यह [ सर्वथा निराली ] चाल है [ कि इसमें ] क्षण मात्र बस कर [ फिर जन्म भर ] छूटने नहीं पाया जाता, [ और ] मारा हुआ ( प्रेम-पात्र की चितवन-कटार से घायल किया गया ) [ तो इस नगर के शासक मदन महाराज के द्वारा] फिर फिर मारा जाता ( दंड पाता, कष्ट पाता ) है, [ किंतु ] खूनी ( घातक ) रखुशहाल ( प्रसन्न अवस्था में )[ स्वतंत्र ] फिरा करता है [ अन्यायी मदन महाराज उसे, कष्ट पहुँचाने की कौन कहे, पकड़ते तक नहीं, अर्थात् छूते तक नहीं ] ॥ - --- ---- चुनरी स्याम सतार नभ, मुंह ससि की उनहारि ।। ने दबोधतु नींद ल निरखि निसा सी नारि ॥ ३२६ ॥ सतार= तारों के सहित । उनहारि= सदृश । यह शब्द संस्कृत शब्द अनुहार से, जिसका अर्थ समान है, बन गया है । ( अवतरण )-नायक ने किसी स्त्री को श्याम चूनरी पहने देख लिया है। तब से वह, १. जाहि (३, ५) । २. भरी (२, ४)। ३. ठहराहि ( ३, ५) । ४. पैयै ( २ ) । ५. मुख ( ३, ५ )।