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बिहारी-रत्नाकर

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बिहारी-रत्नाकर | ( अर्थ )-[ वह ] मृगनयनी [ मुझे अपनी ओर ] खींचती हुई सी चितवन से देख कर, [ और मेरे ] दृगों में फिर उझकने के निमित्त लालसा लगा कर (इस बात की चाह लगा कर कि वह फिर उझके, तो मैं उसे देखें ), अलसा कर ओट में हो गई, [ तब से मैं उसकी खिड़की पर दृष्टि लगाए उसे फिर देखने की आशा से खड़ा हैं ] ॥ नर की अरु नल-नीर की गति एकै करि जोइ ।। जतौ नाचौ है चलै, तेती ऊँचौ होइ ॥ ३२१ ।। नल-नीर= फुहारे के नल का पानी ।। गति = चाल, व्यवस्था । ( अवतरण )-कवि की प्रास्ताविक उक्रि है ( अर्थ )-मनुष्य की तथा फुहारे के नल के जल की व्यवस्था एक ही कर के (एक ही सी ) देखो ( समझे)। [वह ] जितना नीचा ( १. नम्र । २. निम्नगामी ) दो कर चलता है, उतना [ ही ] ऊँचा ( १. श्रेष्ठ । २. ऊर्ध्वगामी ) होता है ॥ । भूषन-भारु सँभारिहै क्यों इहिँ तन सुकुमार । सूधे पाइ न धर परै सोभा हीं के भार ॥ ३२२ ॥

( अवतरण )-नायिका अपने यौवन तथा रूप की ऍड से लचकती हुई पाँव रखती है, जिससे सब क्रिया के करने में विलंब होता है। अतः दूती, जो उसको शीघ्र अभिसार कराया चाहती है, उसके सौकुमार्य की प्रशंसा करती हुई, बड़ी चातुरी से, उसको भूषणादि सजित करने के बछड़े में देर लगाने से वारण करती है-- | ( अर्थ )-[ तू ] इस सुकुमार तन पर भूषण का भार क्योँकर संभालेगी? [ तेरे ] पाँव [ तो ] शोभा ही के भार से धरा ( पृथ्वी ) पर सीधे नहीं पड़ते ॥


--- मुँह मिठासु, दृग चर्किने, भैहैं सरल सुभाइ ।

तऊ खरें आदर खरं खिन खिन हियौसकाइ ॥ ३२३ ॥ मिठासु–यह शब्द प्रचलित राष्ट्रभाषा में स्त्रीलिंग माना जाता है। पर बिहारी इसको पुलिंग मानते थे। इस दोहे में तो इसका पुलिंग होना केवल इसके उकारांत होने से लक्षित होता है, ओर ३६०३ दोहे में भी ऐसा ही है । पर ४७३वें अंक के दोहे में इसके साथ 'किती' तथा 'दय' शब्दों का प्रयोग हुआ है, जिनसे इसका पुलिंग माना जाना स्पष्ट हो जाता है। ३३७वें दोहे में इसका लिंग निर्धारित नहीं होता, और और किसी दोहे में यह शब्द आया ही नहीं है। ( अवतरण )-प्रौढ़ा सादरी धरा नायिका पति के सापराध देख कर उसका विशेष आदर कर के मान सूचित करती है। नायक उसके नए ढंग के आदर से शंकित हो कर कहता है ( अर्थ )-[ यद्यपि तेरे ] मुख में मिठास ( मीठा वचन ) है, नेत्र चिकने (स्नेह १. परत ( १ )। २. चिकनई ( ३, ५ ) । ३. हियँ ( ३, ५ )।