बिहारी-रत्नाकर है। पर गुलाब-जल से उद्दीपन होने के कारण उसकी विरह-ज्वाला और भी भड़क उठती है, अतः वह सखी से कहती है
( अर्थ )-कामदेव-द्वारा भली भाँति मार की गई ( मारी गई )[ मैं तो ] मरी [ ही ] पड़ी हैं; [ अब तु] मरी को मत मार । अरी [ सखा ] [ मुझ ] जली हुई को घड़ी घड़ी (फिर फिर ) गुलाब जल से साँच कर [ तू और अधिक ] मत जला ॥
क्या सहबात न लगै, थाके भेद-उपाइ ।
हठ-दृढ़गढ़-गढ़वै सु चलि लीजै सुरंग लगाइ ॥ ३०९ ।। सहबात = मेल की बातचीत ॥ भेद-उपाइ = फोड़ कर अपनी ओर मिला लेने के उपाय ॥ गढ़वै = गढ़वतिनी, गढ़ में बैठी हुई ।। सुरंग = ( १ ) सुंदर राग अर्थात् प्रेम । ( २ ) सुरंग, वह छिद्र जिसमें बारूद भर कर गढ़ इत्यादि उड़ा दिए जाते हैं । | ( अवतरण )–मानिनी नायिका को समझाते समझाते हारी हुई सखी नायक से, उसके हठ का रूपक दृढ़ गढ़ से कर के, कहती है| ( अर्थ )—संधि की बातचीत किसी प्रकार [उस पर] नहीं लगती ( प्रभाव डालती), मिला लेने के [ सब ] उपाय थक गए ( व्यर्थ हो गए ) । अतः [ अब आप स्वयं ] चल कर [ और ] सुरंग लगा कर ( १. अपने प्रेम में लगा कर । २. गढ़ को बारूद के द्वारा उड़ा कर ) [ उस ] हठ-रूपी दृढ़ गढ़ की गढ़वर्तिनी को लीजिए ( अपने वश में कीजिए ) ॥
तो ही को छुटि मानु गौ देखत हीं ब्रजराज ।
रही घरिक लौं मान सी मान करे की लाज ॥ ३१०॥ (अवतरण )-नायिका ने नायक से मान किया है । सखी यह कह कर मान छुड़ाया चाहती है कि तेरा मान तो छूट चुका है, अब तो तू व्यर्थ ही मान करने की सजा हो रही है
| ( अर्थ )-तेरे हृदय का मान [ त ] ब्रजराज को देखते ही छूट गया । [अब तो ] मान करने की लजा, मान की भंति ( मान के स्थान पर ), घड़ी भर ठहरी हुई है॥
न ए विससियहि लखि नए दुरजन दुसह-सुभाइ ।
ऑटै परि प्राननु हरत कॉर्दै लौं लगि पाइ ॥ ३११ ॥ विससियहि= विश्वास किए जायें ॥ नए = नम्र हुए । दुसह-सुभाइ=दुःसह स्वभाव वाले ॥ ऑटै ( अर्ति )= दुःख, शामर्ष, दावें ॥
( अवतरण )-कवि की प्रास्ताविक उक्रि है( अर्थ )-ये तुःसह स्वभाव वाले दुर्जन नए ( नम्र हुए) देख कर विश्वास ने १. किये ( ३, ५) । २. बिससि इहि ( ३, ५ ), बिससिये (४) । ३. दुर्जन ( २, ३, ५) । ४. हरे ( ५ )।
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बिहारी-रत्नाकर