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बिहारी-रत्नाकर

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बिहारी-रत्नाकर १२९ हुए अर्थात् सुडोल, अथवा सुंदर प्रकार से जोड़ मिलाए गए ॥ गरवि = गर्व कर ॥ निसाँक= विना इस बात की शंका के कि कहीं मेरा गर्व मिथ्या न ठहरे ।। ग्रसति = पकड़ती हुई, अपने में लगा लेती हुई ॥ ( अवतरण )---नायिका नायक से कुछ अनमनी सी हो रही है । नायक उसकी नथ को संबोधित कर के तथा उसे सुना कर कहता है ( अर्थ ) हे नथ, तू इन दो ही 'सुगथ' मोतियों से निःशंक गर्व कर, जिनके पहनने से जग के दृगों को प्रसती हुई ( अर्थात् परम नेत्ररंजक ) नासिका हँसती हुई सी लसती ( सुशोभिद होती ) है ॥ | जब कोई छ रुष्ट सा रहता है, तो उसके हँसाने के निमित्त लोग प्रायः कहते हैं कि यह देखो, नाँक पर हँसी आई ।" इसी प्रकार नायक नायिका का अनमनापन छुड़ाने के निमित्त कहता है कि उसकी नाक मोतिय के व्याज से दाँत दिखलाती, अर्थात् हँसती सी, है । अपने इसी वाक्य से वह नायिका के नासिका-सौंदर्य की प्रशंसा भी, उसके प्रसन्नतार्थ, करता है । हरि-छवि-जल जब मैं परे, तब हैं छिनु बिछेरै न । भरत ढरत, बुड़त तरत रहेत घरी लौं नैन ॥ ३०७॥ घरी = समय-बोधक जल यंत्र की कटोरी ॥ ( अवतरण )-हरि की शोभा मैं अपने नेत्र की सक्रि का वर्णन नायिका अपनी किसी अंतरंगिनी सखी से करती है | ( अर्थ )—जब से [ मेरे ] नेत्र हरि के छवि-रूपी जल में पड़े हैं, तब से क्षण मात्र [ भी उससे ] बिछुड़ते नहीं ( अलग नहीं होते ), [ समय-प्रदर्शक जलयंत्र की ] घड़ी ( घटी, कटोरी ) की भाँति [ उसी छवि-जल में ] भरते दरते, [ तथा ] डूबते उतराते रहते हैं । | समय-प्रदर्शक जलयंत्र की कटोरी भी क्षण मात्र जल से अलग नहीं रहती, क्योंकि यदि वह जल से कुछ देर अलग रहे, तो समय-प्रदर्शन मैं उतनी देर का भेद पड़ जाय । अतः वह नाँद के जल ही मैं भरती दरती तथा डुवती तैरती रहती है ॥ 'भरत ठरत' तथा 'बृढ़त तरत' युग्म का प्रयोग यथासंख्य हुआ है। 'भरत' का संबंध 'बुडत' से तथा 'वरत' का संबंध ‘तरत' से है ॥ मार-सुमार-करी डरी मरी, मरीहिँ न मारि। साँच गुलाब घरी घरी, अरी, बरीहिँ न बारि ॥ ३०८ ॥ मार-सुमार-करी= कामदेव-द्वारा भली भाँति भारी गई अर्थात् अाघात पहुंचाई गई ।। उरी मरी= मरी पड़ी ।। बरीहिँ = जली हुई को ।। ( अवतरण )-प्रोषितपतिका नायिका को संतप्त देख कर सखी उस पर गुलाब-जज छिकती • १. विसरै ( २, ४) । २. हरत ( ३, ५ ) । ३. खरी ( ३, ४ ) ।।