१६
विहारी-रत्नाकर कुटिल= टेढी आकृति वाली ॥ बंक ( वक्र ) =टेढे स्वभाव वाली, छली, निर्दय ॥
( अवतरण ) -नायिका की तिरछी दृष्टि का घायल नायक सखी से कहता है, अथवा कवि की प्रास्ताविक उक्ति है
| ( अर्थ )-संगति का दोष सब को लगता है. [ ये वचन जो सयानों ने] कहे हैं, सो सच्चे वचन हैं । [ देखो, ] कुटिल [तथा ] कपटशील भ्रकुटी के संग से नयन [ भी ] कुटिल [ तथा ] वक्र गति वाले हो गए हैं ।।
जरी-कोर गोरै बदन बढ़ी खरी छवि, देखु ।
लसति मनौ बिजुरी किए सारद-ससि-परिबेषु ॥ ३०४ ॥ परिवेषु =मंडल, घेरा ।। ( अवतरण )—सखी नायक को नायिका की शोभा दिखलाती हुई कहती है
( अर्थ ) देखो, [ उसके ] गोरे मुख पर [ उसकी साड़ी की ] ज़री की कोर ( किनारी ) मैं शोभा [ कैसी ] अधिक बढ़ी है। मानो विजली शरद ऋतु के चंद्रमा को मंडल किए हुए विराजती है ॥
चितवन भोरे भाइ की, गोरे मुंह मुसकानि । | लागत लटकि अली-गरें, चित खटकति नित अनि ॥ ३०५॥
लागति--- चार प्राचीन पुस्तकों में तो 'लागति ही पाठ मिलता है, और दो संख्या वाली पुस्तक में 'लगति' पाठ है, एवं लागानि', पाठांतर-रूप में, लिखा हुआ है । 'लागत पाठ के अनुसार दोहे का अर्थ करने में कुछ हेरफेर करना पड़ता है । ज्ञात होता है कि अनवरचंद्रिका में इसी कारण ‘लागनि' पाठ कर लिया गया है। श्रीर उसके पश्चात् अन्य टीकाकारों ने भी उसी का अनुसरण किया है । इस संस्करण में प्राचीन पुस्तकों के अनुसार ही पाठ रखा और उसी के अनुसार अर्थ किया गया है ।।
( अवतरण )--नायक को देख कर नायिका ने जो चेष्टाएँ कीं, उनका वर्णन वह उसकी सखी अथवा अपने किसी अंतरंग सखा से करता है-- | ( अर्थ )-भोलेपन की चितवन से ( ऐसा चितवन के साथ कि मानो उसके चित्त में मेरी ओर कोई भाव ही नहीं है ), [ तथा ] गोरे मुख पर मुसकान से ( अर्थात् सहित ) सखी के गले से झुक कर लगती हुई ( सखी के भेटती हुई ) [ वह मेरे ] चित्त में नित्य आ कर खटकती ( पीड़ा देती, अर्थात् अपने से मिलने के निमित्त उत्सुक करती ) है ॥
इहिँ द्वैहाँ मोती सुगथ हूँ, नथ, गरीब निसाँक।
जिहिँ पहिरै जग-दृग ग्रसति लसति हँसति सी नाँक ॥ ३०६ ॥ इहिं वैहाँ मोती सुगथ=इन दो ही सुगथ मोतियों से अर्थात् ऐसे दो मोतियों से, जो कि सुगथ हैं तो वे ही हैं, अन्य मोती उनके आगे सुगथ नहीं लगते । सुगथ ( सुग्रथ )=सुंदर प्रकार से अमे
१. प्राली ( २ ) । २. ए ( ३, ५ ) । ३. हॅसति लसति सी ( २, ३, ५ )।
पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/१७१
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
१२८
बिहारी-रत्नाकर