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१२३ बिहारी-रक्षाकर किसी परिमित निबंध को गति कहते हैं । इसी का रूपांतर अव गत रह गया है, जिसको कि ऐसे वाक्यों में लोग प्रयुक्त करते हैं-“उसने एक गत नाचा' ।। लहाह अति भतिनु की--इसका अर्थ नृत्य की गत का अत्यंत पद-लाघव के साथ नाचना, अर्थात् नाच में अति शीघ्रतापूर्वक चलत किरते करना, है ॥ ( अवतरण )-यह दोहा रास के समय का है। उस समय का सृत्तांत गापि आपस मैं ती हैं ( अर्थ )-[ उस ] शरद् निशा में गोपियों के संग रस रास में रमते हुए ( आनंदपूर्वक क्रीड़ा करते हुए ) [ उन] रसिक को, गतों के प्रति शीघ्र नाच के कारण, सबों ने सबों के पास देखः ॥ इस दोहे का भावार्थ यह है कि रास-मंडल में श्रीकृष्णचंद्र शेसे मत वेग से नृत्य करते थे कि सब को सव के पास दिखलाई दते थे, जैसे कि यदि किसी चक्र पर कोई विंदु लगा दिया जाय, और चक वेग से घुमाया जाय, तो वह विंदु हर जगह चक्राकार दिखलाई देगः ।। स्याम-सुरति करि राधिका, तकति तरनिजा-तरु ।। अँसुवनु करति तराँस कौ खिनऊ खरिह नीरु ॥ २९२ ॥ तरनिजा= यमुना ॥ ( अवतरण )--श्रीकृष्णचंद्रजी के मथुरा चले जाने पर श्रीराधिकाजी की स्मृति-दशा का वर्णन सखी सखी से करती है, अथवा उद्धवजी मथुरा मैं लौट अ कर श्रीकृष्णचंद्र से कहते हैं ( अर्थ )--श्रीराधिकाजी यमुना के तीर को देखती हुई , श्याम की स्मृति कर के, [ अपने ] आँसुओं से तराँस ( तट के निकट ) का पानी क्षण भर खारा कर देती हैं । गोपिनु के अँसुवनु भरी सदा असोस, अपार । डुगर डगर नै है ही, बगर बगर कै बार ॥ २६३ ॥ नै ( नइ )=नदी । संस्कृत शब्द नदी का प्राकृत रूप नई होता है। उसी रूप से 'नई' और 'ने' रूप बन गए हैं ॥ बार=द्वार ।। ( अवतरण )-उद्धवजी का वचन श्रीकृष्णचंद्र से ( अर्थ )[ हे श्रीकृष्णचंद्र, व्रजमंडल के ] डगर डगर (प्रति मार्ग ) में, घर घर के द्वार पर, गोपियों के आँसुओं से भरी हुई सदा असोस ( कभी न सूखने वाली ) [ तथा] अपार नदी हो रही है ( बन गई है ) ॥ दुचि चित हलति न चलति हँसति न झुकति, बिचारि। लखत चित्र पिउ लग्वि, चितै रही चित्र लौं नारि ।। २९४ ।। दुचितं = द्विविधा में पड़े हुए ॥ हलति न चलति =न हिलती है, न चलती है । हिलती चलती १. नइ ( ५ ) । २. रह ( १, ३ ) ।।