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बिहारी-रत्नाकर ११५ ( अर्थ )-मैं [ तुझको ] मान करते ( मान करने से ) बरजती नहीं, [प्रत्युत] उलट कर (बरजने के बदल ) शपथ दिलाती हैं [ कि तू अवश्य मान कर ] [ पर क्या तुझसे अपनी ये ] सहज हँसौंह ( स्वभाव ही से हँसती हुई ) भौंहे रिसाहीं (रोष से भरी हुई सी ) की जायँगी ॥ | सखी के कहने का अभिप्राय यह है कि यद्यपि तु मान करने पर उधत है, तथापि तु अपनी सहज हमहीं भौंहें रोष से भरी हुई सी न बना सकेगी. और तेरा मान मिथ्या ठहरेगा । अतएव उसका करना वृथा है। साथ ही यह भी अभिप्राय है कि तू सहज ही सुशीला है, वास्तव मैं तो तुझे रोष है नहीं, फिर भला बनाने में कहीं भौंह रिसॉहीं बन सकती हैं। यह कहना वैसा ही है, जसे किसी मनुष्य को किसी अन्य मनुष्य पर रुष्ट हो कर उसे हानि पहुंचाने की चेष्टा करते देख कर कोई उससे कहे कि कहीं आप ऐसे सजन भी भला ऐसा काम कर सकते हैं और यह सुन वह अपनी प्रशंसा पर रीझ कर और अपनी प्रतिष्ठा का विचार कर के उस हानिकारक कार्य को करने से रुक जाय ॥ तिय-तिथि तरुन-किसोर-बय पुन्यकाल-सम दोनु । काहू पुन्यनु पाइयतु बम-संध-संक्रोनं ॥ २७४ ॥ तरुन ( तरुण )-पंद्रह वर्ष के उपरांत तरुणावस्था का प्रारंभ होता है । किसोर ( किशोर )ग्यारहवें वर्ष के आरंभ से पंद्रह वर्ष के अंत तक किशोरावस्था रहती है ॥ यय ( वय ) = वयक्रम, अवस्था । पून्यकाल ( पुण्य-काल ) = शुभ समय । ज्योतिषशास्त्र में सूर्य-पथ क मंडल के बारह भाग माने जाते हैं। प्रत्येक भाग राशि कहलाता है । इन राशियों के भिन्न भिन्न नाम है । सूर्य के भिन्न भिन्न राशियों में रहने पर उसके भिन्न भिन्न नाम कह जाते हैं, अतः द्वादश आदित्य प्रसिद्ध है । जब एक राशि को समाप्त कर के सूर्य दूसरी राशि में प्रविष्ट होने लगता है, तो उसका दान राशियों को मंधि-रेखा उल्लंघन करनी पड़ती है । इसी उल्लंघन को संक्रमण अथवा संक्रांति कहत है । सूयाएड के मध्य विदु क' इम राध-रेखा के स्पर्श तथा त्याग में ना समय लगता है, संक्रांति का मुख्य पुण्य काल वहा है । वह समय बड़ा पुनात माना जाता है, और ऐसा सुक्ष्म होता है कि उसका अनुसंधान बड़ा कठिनता से हो सकता है। उसक विषय में प्रसिद्ध यह है कि बड़े पुण्यात्मा लोग ही उस समय का पाते हैं, अथात् उस समय का लाक्षत कर के समयोचित कर्तव्य कर सकते हैं ॥ पुन्यकाल-सम दोनु = पुण्य काल की भाति दोनों हैं, अधीत एकत्रित हैं । जिस प्रकार दो सूर्य, अथीन् दो राशियों के सूर्य, पुण्य-काल में एक ही संधि-रेखा पर रहते हैं, उसी प्रकार इस समय उस स्त्री में दोनों अवस्थाओं का संधि है ।। ( अवतरण )-नायिका का वयक्रम किशोर तथा तरुण अवस्था की संधि पर है, अतः उसकी सखी नायक के, उसकी व्यवस्था कह कर, उसके पास लाया चाहती है ( अर्थ )---[ उस ] स्त्री-रूपी तिथि में | इस समय] तरुण [ तथा ] किशोर वयक्रम, दोनों पुण्य-काल के समान [स्थित ] हैं। [यह] ययक्रम-संधि-रूपी संक्रमण केसी [मनुष्य] से [बड़े] पुण्यों [ के प्रभाव ] से पाया जाता है ( प्राप्त हो सकता है ), [ अतः आपको इसका लाभ उठाना चाहिए ] ॥ १. दौन ( २ ) । २. पाये ( ४ ) । ३. संक्रौन ( २ )।