बिहारी-रत्नाकर तो. [ फिर ] अपने गुण से बाँध रखिए ( अपने सगुण स्वरूप की उपासना में लगा लिए ) ॥
चितुतरसतु,मिलत न बनतु बसिपरोस * बास ।
छाती फाटी जाति सुनि टाटी-मोट उसास ॥ २६२॥ उसास ( उच्छ्रास )=ऊंची साँस । संस्कृत में उन्क्वास शब्द पुल्लिंग मना जाता है। पर भाषा में लोग ‘उसास' शब्द का प्रयोग पुलिंग तथा स्त्रीलिंग, दोनों प्रकार से करते हैं। बिहारी ने भी इसका प्रयोग दोनों लिंगों में किया है । सतया में 'उसास' शब्द का प्रयोग नव दोहों में हुआ है। उनमें से ५५३ अंक के दोहे में तो उसका लिंग संदिग्ध रह जाता है, पर तं। भी उसमें उसका पुलिंग मानना अच्छा है। शेष श्राठ दाहाँ में से १३८, ३३४, ४तथा ५०७ अंकों के दाहों में उसका पुलिग-प्रयोग हुअा है, और ४४९, ५३४, तथा ६६• अंकों के दोहों में स्त्रीलिंग-प्रयाग । इस दोहे में ‘उसास' शब्द स्त्रीलिंग एकवचन, अथवा पुलिंग बहुवचन, दोनों माना जा सकता है । ५०७ ग्रंक के दोहे में वह ‘उसॉस' रूप से आया है।
( अवतरण )-नायक तथा नायिका दोन पड़ोसी हैं। पूर्वानुराग में उनको मिलने की अत्यंत अभिलाषा है। पर मिलने का कोई बानक नहीं बनता, यद्यपि दोनों के घरों में केवल एक टट्टी मात्र का अंतर है, जिसकी ओट से उच्झास सुनाई देता है । उच्छास को सुन सुन कर उनकी विकलता और भी बढ़ती है। इसी विकलता के बनने का वृत्तांत नायिका अपनी अतरंगिनी सखी से अथवा नायक दूती से कहता है
( अर्थ )-चित्त तरसता रहता है, [और ऐसे ] पड़ोस के वास में [कि दोनों घरों के बीच केवल एक टट्टी मात्र का अंतर है ] बस कर [ भी ] मिलते नहीं बनता! टट्टी की ओट से [ उसकी ] ऊँची साँस ( मिलने की अभिलाषा तथा न मिलने के दुःख से ली जाती हुई ऊँची साँसों का शब्द ) सुन सुन कर [ और भी कष्ट बढ़ता है, अतः ] छाती फटी जाती हैं॥
यह बात स्वाभाविक है कि जब कोई किसी से मिलने का अभिजारी होता है तो, यह ज्ञात होने पर कि उसका प्रेमपत्र भी उससे न मिलने के कारण दुखी है, उसकी अभिजात्रा और भी तीव्र तथा दुःखदायिनी हो जाती है।
जालरंध्र-मग अँगनु को कछु उजास सौ पाइ ।
पीठ दिऐ जगत्य रंयौ, डीठि झरेग्वै लाइ ।। २६३ ॥ जालरंध=घर में प्रकाश आने के निमित्त झराख मैं जो जाली लगी रहती है, उसके छिद्र ॥ उजास=उजाला, प्रकाश, यति ॥ जगत्यौ=जागता हुआ ।।
( अबतरण )---नायक नायिका पड़ोसी है । नायिका के झरोखे ( छोटी खिड़की ) से नायक की छत दिखाई देती है । उस झरोखे का पट जाबीवार है। नायक ने नायिका की झलक कहीं उसो ली में से देख च । से, इस अशा से कि कदाचित् वह जाली खोज कर झोके, वह रात भर, झरोख
१. जग स ( २ ), जग सो ( ३, ४, ५) । २. रहे ( २ ) । ३. झरोखा ( २, ३, ४ )।
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बिहारी-रत्नाकर