विहारी-रत्नाकर उठ कर फिर नीची हो गई। यही वृत्तति वह सखी से कह कर नायिका के प्रति अपना अनुराग प्रक करता है ( अ )-[ उसका ] हांधू ने सर्वथा कुडी की भाँति नीची ही नीची दौड़ कर, [एकाएकी ] ऊपर उठ, [ मरे ] मन रूपी कुलिंग को झाँप कर [ तथा ] झकझोर कर नीचा दिया ( नीचे की अंर गति लिया, अर्थात् शीघ्रता से फिर नीची हो गई ) ॥ सूर उदित हूँ मुदिन-मन, मुख सुन्धमा की ओर । चितै रहत चहुँ अार हैं, निहल चखनु, चकोर ।। २५८ ।। ओर–पहिले 'ग्रार' का अर्थ अवधि छ । 'मुख सुखमा की ओर' का अर्थ है, मुख जो कि सुखमा की अवाध है। दूसरे ‘प्रार' शव्द का अर्थ दिशा है ।। ( अवतरण ) - सखी नायक से नायिका के सुख की प्रशंसा करती है ( अर्थ ) -सुर्य के उादेत होने पर भी चकोर निश्चल आँखा से ( टकटकी बाँध कर ) उसके मुख का, जो कि सुखमा को अवाध है, चारों ओर से मुदित-मन देखा करते हैं ।। स्वेद-साललु, रोमांच-कुसु गहि दुलही अरु नाथ ।। दिया हियो संग हाथ के हथलेयँ हाँ हाथ ॥ २५ ॥ इथलेयं = यह हथले या अर्थात् पाणिग्रहण का सप्तम्यंत रूप है ।। हाथ=दूसरे हाथ शन्द का प्रयोग सप्तम्यंत है । ( अवतरण )--दुलह तथा दुलहिन विवाह के समय, पाणिग्रहण करते ही, परस्पर अनुरक्त हो गए हैं। यही वृत्तांत सखा सख़ी से कहती है ( अर्थ )-[ विवाह के समय ] हथलेए ही ( पाणिग्रहण ही ) में दुलहिन और नाथ ने. स्वेद-रूपी जल [ तथा ] रोमांच-रूपी कुश ग्रहण कर के, [ परस्पर अपना अपना] दृश्य हाथ के साथ हो [ दूरे के ] हाथ म दे दिया। लोकिक जल तथा कुश ग्रहण करने की बारी आने के पहले ही-विवाह के निमित्त जो संकल्पादि होते हैं, उनके पूर्व हीथोमा मानसिक संकल्प से एक दूसरे के हो गए ] ॥ दच्छिन पेिय, लै बाम-बस, बिसई तिय आन । एकै बाषरि ॐ विरह लागी बरष बिहान ॥ २६० ।। दच्छिन ( दक्षिण ) = चतुर । यह साहित्य का पारिभाषिक शब्द है। अनेक स्त्रियों से समान प्रीति रखने वाले नायक को दक्षिण नायक कहते हैं । बाम ( वामा ) = ( १ ) स्त्री । ( २ ) टेदी, कुटिला, दुष्टा । बाषरि= पर, घर की दीवार । हमारी पांचों प्राचीन पुस्तकों में यही पाठ है । पर अनवरचंद्रिका तथा १. हियो दियो ( २, ४)। २. हाथ लए ही (४), हाथ लिये ही (५) । ३. बिसराई ( २, ३, ४, ५ )।
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बिहारी-रत्नाकर