१०२ बिहारी-रत्नाकर रुख ( रुख )—यह फ़ारसी भाषा का शब्द है । इसका अर्थ मुख है। उर्दू में इसका अर्थ चेष्टा, दिशा इत्यादि भी होता है। उक्त भाषा में इसका प्रयोग पुलिंग-रूप से होता है, पर भाषा में स्त्रीलिंग तथा पुलिंग, दोन रूप में दिखाई देता है । बिहारी ने इसका प्रयोग चार दोहों में किया है, और चारों में इसको स्त्रीलिंग ही माना है । देखो दोहे २१६, ३६४, ४१५ ॥ बुढ़ = बीरबहूटी । ब्रज में बीरबहूटी को सावन की बूढ़ी अथवा डोकरी अब भी कहते हैं । ( अवतरण )-खंडिता धीरा नायिका से नायक-वचन ( अर्थ ) -हे शशिमुखी, रस की सी रुख ( प्रेम की चेष्टा की सी चेष्टा ) से हँस हँस कर वचन बोलते ( बोलने से ) मन में [ तेरा] मान गुढ़ ( छिपा हुआ ) कैसे रह सकता है, [ क्योंकि ] तेरे नयन वीरबहूटी के रंग के हो गए हैं ॥ जिहिँ निदाघ-दुपहर रहै भई मांघ की राति । तिहि उसीर की रावटी खरी अावटी जाति ॥ २४४ ॥ ( अवतरण )-दूती नायक से नायिका के विरह-ताप का वर्णन करती है| ( अर्थ )- जिस [ उशीर की रावटी अर्थात् खस की बनी हुई रावटी ] मैं [ ऐसी ठंढक है कि उसमें बैठने वाले को ] ग्रीष्म की दुपहर माघ की रात हुई रहती है ( जान पड़ती है ), उस उशीर की रावटी में [ भी वह विरह-ताप के कारण ] खरी ( अत्यंत ) उबली जाती है ॥ रही दहेड़ी ढिग धरी, भरी मथानिया बारि ।। फेरति करि उलटी रई नई बिलोवैनहारि ॥ २४५ ॥ मथनिया = मथने का पात्र, वह बड़ी हाँड़ी जिसमें दही तथा जल मिला कर मथा जाता है । ( अवतरण )-नायिका दही मथने के लिए बैठी है। इतने ही मैं नायक वहाँ आ गया। उसको देख कर नायिका मोह से उखटी पुलटी क्रिया करने लगी । कोई सखी दूसरी सखी से उसकी दशा कहती है ( अर्थ )-दहेड़ी ( दही की हाँड़ी ) [ तो इसके ] पास [ ज्यों की त्यों ] रक्खी [ ही ] रह गई, [ केवल ] जल से भरी हुई मथनिया में [ विना दही डाले ही ] यह नई ( अनोखी ) बिलोने वाली ( मथने वाली ) रई ( दही मथने का काट का यंत्र ) उलटी कर के फेर रही है ( घुमा रही है ) ॥ । देवर-फूल-हने जु, सु सु उठे हरषि अँग फूलि ।। हँसी करति औषधि सखिनु देह-ददोरनु भूलि ॥ २४६ ॥ १. माह (४, ५ ) । २. सो ( ५ ) । ३. निलोवानि ( १, ४) । ४. रािस (४) । ५. औषदि (१); ओषदि (४), औषद (५