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बिहारी-रत्नाकर


बिहारी-रत्नाकर अपने [ बाएँ ] दृग की फड़क, उर के [ अकारण ] उत्साह, [ तथा ] तन के [ अचानक ] उभार से [ प्रियतम की अवाई का अनुमान कर के ] विना प्रियतम के आए ही उमग कर [उनसे मिलने के चाव से ] साड़ी इत्यादि बदलने लगी है। रहे बरोठे मैं मिलत पिउ प्राननु के ईसु ।। आवत आवत की भई बिधि की घरी घरी सु ॥ २२३ ॥ बरोठा ( प्रकोष्ठ ) = द्वार पर का दाल। ।। बिधि = ब्रह्मा । घरी सु= सो घड़ी अर्थात् उतना समय, जितना प्रियतम को अपने गुरुजन तथा इष्टमित्रों से मिलने में लगा ॥ | ( अवतरण )--- नायक परदेश से आ कर द्वार पर के दालान में गुरुजन तथा इष्टमित्र से मिल रहा है। इस कारण नायिका के पास पहुँचने मैं उसको कुछ विलंब हुआ । नायिका को मिलनोत्सुकता के कारण उतना विलंब भी बहुत ज्ञात हो रहा है। सखियाँ आपस मैं उसकी इस तीव्र उत्सुकता का वर्णन करती हैं | ( अर्थ )-[ इसके ] प्राणों का ईश प्रियतम बरोठे में [ गुरुजनों तथा इष्टमित्रों से] मिलता हुअा रह गया है ( किंचित् ठहर गया है ), [ सो इसके निमित्त ] वह आते आते की घड़ी ( आने की प्रतीक्षा की घड़ी ) ब्रह्मा की घड़ी हो रही है ॥ | इस दोहे के पूवर्धा के अंत मैं जो ‘ईसु' शब्द है, उसका उकारांत होना आवश्यक है ; क्र्योंकि उत्तरार्ध के अंत मैं ‘घरी सु' आया है, जिसमें 'सु' सो का लघु रूप मात्र है। पर उकारांत 'ईसु' ईश शब्द के कर्ता अथवा कर्मकारक का एकवचनांत रूप होता है, और यहाँ 'ईस' की क्रिया तथा विशेषण अर्थात् ‘रहे मिलत' तथा 'प्राननु के', ये दोन ही बहुवचन हैं। अतः इस पाठ मैं एकवचन कर्ता की क्रिया तथा संबंधकारक-रूप विशेषण, दोन बहुवचन हैं, जो व्याकरण के नियम के विरुद्ध है । यद्यपि एक व्यक्ति के निमित्त भी प्रतिष्ठार्थ बहुवचन का प्रयोग होता है, पर ऐसी दशा में कर्ता, क्रिया इत्यादि सब बहुवचनांत प्रयुक्त होते हैं। एकवचन कर्ता के निमित्त प्रतिष्ठार्थ बहुवचन क्रिया का प्रयोग कदाचित् कोई कोई कर भी लेते हैं, पर सतसई मैं इस दोहे के अतिरिक़ और कहीं ऐसा प्रयोग देखने में नहीं आया कि कर्ता तो एकवचनांत हो, और क्रिया तथा विशेषण दोन बहुवचनांत । अतः इस दोहे के पूर्वार्ध के पाठ में कुछ गड़बड़ अवश्य है । अनवर-चंद्रिका तथा श्रीप्रभुदयालु पाँडे की टीका मैं इस दोहे के पूर्वार्ध के पाठ ये मिलते हैं ( अनवर-चंद्रिका ) --"रह्यौ बरोठे मैं मिलत पिय प्राननि को ईसु ।” ( प्रभुदयालु पाँडे-कृत टीका )-रह्यौ बरोठे में मिलत पिय प्रानन को इसु ।' इन पार्टी के अनुसार तथा जो परिपाटी सतसई के इस संस्करण मैं रक्खी गई है, उस पर विचार कर के शुद्ध पाठ यह ठहरता है “रह्यौ बरोठे मैं मिलतु पिउ प्राननु को ईसु ।” और, यह पाठ उचित भी ज्ञात होता है, क्याँकि इसमें कर्ता, क्रिया तथा संबंधकारक-रूप विशेपण सब एकवचनांत हैं, पर जिन पाँच प्राचीन पुस्तक के आधार पर इस ग्रंथ मैं पाठ शुद्ध किए गए हैं, उनमें से तीन पुस्तक अर्थात् पहिली, चौथी तथा पाँचवीं के मिलान से वही पाठ ठीक ठहरता है, जो मूख दोहे में रखा गया है, और दूसरी तथा तीसरी पुस्तक के खंडित होने के कारण यह दोहा उनमें