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बिहारी-रत्नाकर फिराया जाता है । फिरि--इस शब्द का प्रयोग कवि ने बड़ी चातुरी से किया है । 'फिरि आवति, फिरि जाति' का अर्थ होता है, नायिका के पक्ष में पुनः पुनः आती जाती है, और चकई के संबंध में घूम घूम कर आती जाती है, क्यॉक चकई घूमती हुई चलती है ।
( अवतरण )- पूर्वानुरागिनी नायिका की दशा सखियाँ आपस मैं कहती हैं
( अर्थ )-[ वह नायक के दर्शनार्थ ऐसी उत्सुक हो रही है कि उसको ] जक (कल) नहीं पड़ती । चकई बनी हुई इधर से उधर [ और ] उधर से इधर, घूम घूम कर, आती जाती है, क्षण मात्र [ भी ] कहाँ ठहरती नहीं ॥
इस दोहे का भाव १९४-संख्यक दोहे के भाव से बहुत मिलता है।
निसि अँधियारी, नील पटु पहिरि, चली पिय-गेह ।
कहौ, दुराई क्यों दुरै दीप-सिखा सी देह ॥ २०७॥ दीप-सिखा= दीपक की लौ ।।।
( अवतरण )-नायिका ने अँधेरी रात मैं, सखी से भी छिप कर, अभिसार किया है। पर सख उसको मार्ग में पहचान कर कहती है
( अर्थ )-[ तुम अपना अभिसार छिपाने के लिये ] अँधेरी रात में”, नीला वस्त्र पहन कर [ तो ], प्रियतम के घर चली हो। [ पर यह तो ] कहो [ कि यह ] दीपक की शिवा सी देह छिपाई कैसे छिप सकती है ॥
रह्यो ढीठ ढाढ़स गहुँ, ससहरि गयौ न सूरु ।।
मुरल्यौ न मनु मुरबानु चर्भि, भौ चूरनु चपि चूरु ॥ २०८॥ ससहरि गयौ = डर गया । चभि = दररे खा कर, कुचल कर ॥ चूरनु = पैर के चूड़ों से ।।
( अवतरण )-नायक नायिका के पैरों के गढ़ तथा उन पर झनकार करते हुए चूड़ के सौंदर्य पर मोहित हो कर सखी अथवा तूती से कहता है
( अर्थ )-[ मेरा] मन गट्टी पर [चूड़ों का ] देरेरा खा कर लौटानहाँ, [प्रत्युत वह] ढीठ सूर धैर्य धरे रहा, [और] डर नहीं गया, [ यहाँ तक कि उन] चूड़ों से चप कर ( दब कर अर्थात् दबते दवते ) चूर चूर हो गया ।
सोहंत अँगुठा पाइ कै अनवटु जरैयौ जराइ ।
जीत्यौ तरिर्वन-दुति, सु ढरि परयौ तरंनि मनु पाइ ॥ २० ॥ | अनवटु= पैर के अंगूठे में पहनने का एक भूषण, जो गोल आकृति का होता है ॥ जय जराइ= नगों के जड़ाव से जड़ा हुआ ॥ तरिवन = ताटंक ॥ ढरि= झुक कर, दीन हो कर ॥ तरनि= सूर्य ।
१. गुहे ( ४, ५ ) । २. ससिहरि ( ४ ), ससिहर ( ५ ) । ३. चुभि ( ४, ५ ), चदि ( ५ )। ४. सोभित ( ४ ) । ५. जरे ( ४ ) । ६. तरुनी (५) । ७. तरुन ( ५ )।
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बिहारी-रत्नाकर