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बिहारी-रत्नाकर ( अवतरण )-सखी नायिका की यौवनावस्था की शोभा नायक से कहती है
( अर्थ )-[ उसके ] अंग अंग में यौवन की चमक सोनजुही सी जगमगा रही है। [ अतः ] कुसुंभ के रंग से रँगी हुई लाल कंचुकी [ उसके ] शरीर की [ सुनहरी ] आभा से दुरंगी ( रक़ और पीत आभाओं से मिश्रित ) हो जाती है ॥
बड़े न है जै गुननु बिनु बिरद-बड़ाई पाइ ।
कहत धतूरे सौं कनकु, गहनौ गढ्यौ न जाइ ॥ १६१ ॥ बिरद ( विरुद ) = प्रशंसात्मक नाम ॥ कनकु=( १ ) सोना । ( २ ) धतूरा ॥ ( अवतरण )---कवि की प्रास्ताविक उक्ति है--
( अर्थ )-[ अपने में ] विना गुणा के [ हुए केवल ] प्रशंसासूचक नाम की बड़ाई पा कर [ वस्तुतः ] बड़ा नहीं हुआ जाता । [ देखो, लोग यद्यपि ] धतूरे को कनक [ जो नाम सोने का भी होने के कारण बड़ा प्रशंसात्मक है ] कहते हैं, [ पर केवल इस नाम के पा लेने ही से धतूरे से, उसमें स्वर्ण के गुण न होने के कारण, ] गहना नहीं गढ़ा जाता ॥
कनकु कनक त सौगुनौ मादकता अधिकाइ ।
उहिँ खाएँ बाइ, इहिँ पाएँ हीं बौराइ ॥ १९२ ॥ मादकता= उन्मत्त करने की शक्ति । अधिकाइ = बढ़ जाता है ॥
( अवतरण )-कवि की प्रास्ताविक उक्रि है कि स्वर्ण, अर्थात् धन, धतूरे से सौगुना अधिक उन्मत्त करने वाला है
| ( अर्थ ) -मादकता में कनक ( सुवर्ण ) कनक ( धतूरे ) से सौगुना बढ़ जाता है; [ क्याँकि ] उसको [ त ] खाने से [ मनुष्य ] बौराता है, [ पर ] इसके पाने ही ( पाने मात्र ) से बौरा जाता है ।।
डीठिरत बाँधी अटनु, चढ़ि धावत न डरात ।
ईंतहिँ उतहिँ चित दुहुनु के नट लौं अावत जात ॥ १९३ ॥ बरत ( वर्त )=रस्सी ॥
( अवतरण ) -- नायक नायिका अपनी अपनी अटारियाँ पर खड़े एक दूसरे को देख रहे हैं, और दोन के मन दोनों की ओर रष्टि-द्वारा जाते हैं। इसी का वर्णन इस दोहे मैं. रस्सी पर दौड़ते हुए नट का रूपक बाँध कर, किया गया है । सखी-वचन सखी से
( अर्थ )-[ दोनों ने अपनी अपनी ] अटारी से [ दूसरे की अटारी तक ] दृष्टि१. हुजतु (१) । २. वा ( २ ), वह (४) । ३. बारातु है ( २ ), बोराइ जग ( ४ ), बौराइये ( ५ )। ४. दीठि ( १ ), दीठ ( ५ ) । ५. श्रावत (४) । ६. इत उत तै ( २ ), इत उत चिरा (४), इत उत ही ( ५ )।
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बिहारी-रत्नाकर