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विहारी-रत्नाकर ( अवतरण )-अंकुरितयौवना नायिका के कुच के कुछ कुछ लक्षित होने लगने का वर्णन सखी नायक से करती है ( अर्थ )-[ चोवा इत्यादि से ] चुपड़ी हुई अँगिया [ तथा ] श्वेत साड़ी में [अहं उसके ] कुच न हाँ छिपते । [ ध्यानपूर्वक देखने से ये ] कवि के अक्षर के अर्थ की भाँति प्रकट हो कर दिखाई देते हैं [ भाव यह कि यद्यपि उसके उरोज अभी ऐसे छोटे हैं कि सामान्यतः तो कंचुक तथा सारी में छिपे रहते हैं, तथापि ध्यानपूर्वक देखने से लक्षित होने लगे हैं। जैसे कवि के अक्षर का सूक्ष्म अर्थ एकाएकी तो नहीं भासित होता, पर विचार करने पर उसी अक्षर में से प्रकट हो कर व्यजित होता है ] ॥ | इस दोहे के अर्थ मैं अन्य टीकाकारों ने बड़ा झमेला किया है। पर जो अर्थ ऊपर लिखा गया है, वह बहुत स्पष्ट है । ‘प्रगटि' के स्थान पर 'प्रगट' पाठ रखने से ये सब झमेलै हुए हैं। ‘प्रगति पाठ से यह अर्थ स्पष्ट निकलता है कि यद्यपि वे प्रकट तो नहीं हैं, पर विचार-पूर्वक देखने से प्रकट हो कर दिखलाई देते हैं। ‘चुपरी' शब्द से कवि कंचुकी का चोवा इत्यादि के द्वारा कुछ रंग-युत हो जाना कह कर उसका साम्य कवि के अक्षरों से करता है, क्याँक अक्षर काले, पीले, लाल इत्यादि लिखे जाते हैं, और साड़ी का श्वेते कह कर उसका साम्य काग़ज़ से दिखलाता है, जो कि प्रायः श्वेत ही होता है । भई जु छथि तन बसन मिलि, बरनि सकें सु न बैन । आँग-ओप अगी दुरी, आँगी आँगे दुरै म ॥ १८ ॥ आँग= अंग ।। ( अवतरण )-नायिका संदली अँगिया पहने हुए है। उसके शरीर के रंग में कपड़े का स्म ऐसा मिल गया है कि कपड़ा लाक्षत नहीं होता । उसी का वर्णन सखो नायक से कर के उसे मायिका को दिखलाने के व्याज से वहाँ लाया चाहती है-- ( अर्थ )-जो शोभा [उसके] तन में कपड़े के मिल जाने से (अलक्षित हो जाने से) हुई है, उसे वचन वर्णन नहीं कर सकते (वह कहने से नहीं झात हो सकती, अतः आप स्वयं चल कर देख लीजिए )। [उसके ] अंग की चमक में अँगिया छिप गई है, [ किंतु ] अँगिया से अंग नहीं छिपता [ अर्थात् ऐसा ज्ञात होता है, मानो वह अँगिया पहने ही नहीं है, अतः इस समय आपको विना अँगिया के कुचों के देखने का आनंद मिलेगा ] ॥ सोनजुही सी जगमगति अंग अँग जोबन-जोति । सुसँग, कैसँभी कंचुकी दुइँग देह-दुति होति ॥ १९० ॥ सोनजुही= पीले रंग की जुही ॥ सुरंग = सुंदर रंग वालीं, लाल ॥ कभी = कुसुंभ के फूल के रंग से रँगी हुई ॥ दुरंग= दो रंग वाली ॥ १. री ( २ )। २. तन-छबि बसन मिलि (४), छबि मिलि तन बसन (५) । ३. अंग (: ४, ५ )। ४. अँगिया ९.४ ) । ५. अंग ( २, ४, ५)। ६. कुसँभी (४) । ७. वृंदरी (२.) ।।