बिहारी-रत्नाकर मरकत-भाजन-सलिल-गत इंदुकला कैं बेख । झन झगा मैं झलमलै स्यामगात-नखरेख ॥ १८६ ॥ मरकत ( मर्कत )= नीलमणि ।। झगा= अँगरखे की भाँति का एक पहिरावा, जिसकी कक्षा मैं चुन्नट रहती है ॥ (अवतरण )—अन्य स्त्री से रति करने मैं नायक के नख-क्षत लगा है । उसी को देख कर खंडिता नायिका कहती है ( अर्थ )-[ अपके ] झीने झगा में श्याम शरीर की ( श्याम शरीर में लगी हुई) नख-रेखा, नीलम की थाली में भरे हुए जल में पड़ी हुई ( प्रतिबिंबित ) चंद्रकला के वेष से ( की भाँति ) झलमलाती है [ जिसे देख कर मुझे बड़ा दुःख होता है, क्योंकि किसी पात्र के जल में चंद्र का प्रतिविब देखना अशुभ है ] ॥ बालमु बारें सौति नैं सुनि परनारि-बिहार । भो रसु अनरसु, रिस रली, रीझ खीझ इक बार ॥ १८७ ॥ बारें = पारी में ॥ ( अवतरण )–नायिका ने नायक को सौत की पारी मैं परस्त्री-विहार करते सुना, जिससे उसको अनेक प्रकार के भाव उत्पन्न हुए। उसी का वर्णन सखी सखी से करती है | ( अर्थ )-सौत की पारी में बालम ( वल्लभ ) को परस्त्री-विहार में [ लगा हुआ ] सुन कर [ उसको ] रस ( सुख ) [ तथा ] अनरस ( दुःख ), रिस (रोष ) [ तथा ]रली ( उपहास करने की वृत्ति ), रीझ ( प्रसन्नता ) [ तथा ] खीझ ( चिढ़ ), [ ये सब विरोधी भावों के जोड़े ] एक बार [ ही ] उत्पन्न हुए ॥ | इन सब भाव के उत्पन्न होने का कारण श्रीलाला भगवानदीनजी ने बड़ी स्पष्टता से लिखा है । अतः हम यहाँ उनका वह लेख ( बिहारी-बोधिनी, पृष्ठ २२२ ) उद्धृत किए देते हैं “सुख ईष्र्या-जन्य, कि अच्छा हुआ सौति को दुःख हुआ । दुःख इस बात का की एक सौत तो थी ही अब एक और हुई । रिस इस बात की कि नायक मेरे ही यहाँ क्यों न चला आया। रली ( क्रीड़ा या मजाक ) इस बात पर कि सौत ऐसी गुणवती नहीं है कि प्रीतम को अपने वश में कर के अपने पास रख सके । रीझ इस बात की कि नायक मेरे ऊपर अधिक अनुरक़ है क्योंकि मेरी पारी में कहीं नहीं जाता । खीझ इस बात की कि बुरी आदत पड़ी, संभव है कभी मेरी पारी के दिन भी नायक परस्त्री के पास जाय ॥ दुरत ने कुच बिच कंचुकी चुपरी, सोरी सेत । कवि-आँकनु के अरथ लौं प्रेगटि दिखाई देत ॥ १८ ॥ सुपरी= चोवा इत्यादि से चुपड़ी हुई । आँकनु= अक्षरौं । १. दुरति ( २ ) । २. सादी ( १ ) । ३. प्रगट ( २, ४)।