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संपादकीय निवेदन

खङ्गविलास-प्रेस आदि का नंबर आता है। इन सभी संस्थाओं के उपकार का भार हिंदी-भाषा-भाषी-मात्र के सिर पर है। परंतु उपकार-मात्र मान लेने ही से इनके प्रति हमारी कृतज्ञता का पर्याप्त प्रदर्शन न हो सकेगा। यह तो प्रकट ही है कि जिस उच्च उद्देश्य से उत्साहित होकर उनके संचालकों ने इन ग्रंथों को छपवाया था, उसकी सिद्धि अब उन ग्रंथों से, उनके प्राचीन परिच्छद में होने के कारण, नहीं हो रही है। अतएव हमें चाहिए कि उनके उस उच्च उद्देश्य की पूर्ति करके ही उन्हें अपनी हार्दिक कृतज्ञता की भेंट अर्पित करें; अर्थात् उनके प्रकाशित किए हुए ग्रंथ-रत्नों के, वर्तमान रुचि और साधनों के अनुकूल, सुलभ, सरल और सर्वाग-सुंदर संस्करण निकालें। यह काम कम कठिन नहीं। विद्या, बुद्धि, समय, परिश्रम और लक्ष्मी, सभी के सहयोग बिना इसमें सफलता की कुछ भी आशा नहीं। किंतु प्राचीन काव्यों के उद्धार का कार्य अनिश्चित समय के लिये स्थगित भी नहीं किया जा सकता। अतएव इन सब पहलुओं पर विचार करके अब हम ही प्राचीन हिंदी-काव्य के प्रकाशन का भार, अपने अनेक मित्रों और कृपालुओं की सहायता के बल पर, अपने दुर्बल कंधों पर लेने को तैयार हो गए हैं, और तत्संबंधी विशाल आयोजन बड़े उत्साह और आनंद के साथ प्रेमी पाठकों के निकट प्रकट करते हैं।

हमारा विचार है, सुकवि-माधुरी-माला के नाम से एक पुस्तकमाला के प्रकाशन का प्रारंभ किया जाय। उसमें हिंदी के सभी मुख्य कवियों के काव्य छपें। सबका संपादन सुचारु रूप से सर्वांग-सुंदर हो। सभी मुद्रित और अमुद्रित प्राप्य प्रतियों से मिलाकर पुस्तकों में पाठ-शुद्ध तो की ही जाय, साथ ही आलोचनात्मक तथा तुलनात्मक भूमिका, आवश्यक टीका-टिप्पणी, अवतरण, शब्दार्थ, पाठांतर आदि का भी उनमें समावेश रहे। जो काव्य-मर्मज्ञ विद्वान् जिन कवियों की कविता के मर्मज्ञ हों, उनसे उन्हीं के काव्य का संपादन कराया जाय। संपादन-कार्य के लिये एक संपादक-समिति निर्मित की जाय। दो-तीन संपादक विशेष रूप से इसी कार्य के लिये नियुक्त किए जायँ। हम लोग यह कार्य आर्थिक लाभ की दृष्टि से नहीं करना चाहते—प्राचीन काव्य-सुमनों की सुगंध से साहित्य-संसार को सुवासित कर देना ही हमारा इष्ट है। अतएव हम चाहते हैं कि धनी-मानी सजन इस माला को अपनाकर, विद्वान् काव्य-मर्मज्ञ इसके संपादन में सहायता पहुँचाकर, जिन महानुभावों के पास हस्त-लिखित पुस्तकें हों, वे उन्हें देकर, तथा सर्वसाधारण इस माला के ग्राहक बनकर हमारे इस कार्य में समुचित सहायता पहुँचावें। पुस्तकों की छपाई आदि बाहरी वेष-भूषा के संबंध में हमें कुछ नहीं करना। कारण, हमारी गंगा-पुस्तकमाला, महिला-माला और बाल-विनोद-वाटिका हिंदी-संसार में इस संबंध में पर्याप्त प्रसिद्धि प्राप्त कर चुकी हैं। और, यह तो कहना ही व्यर्थ है कि इस