________________
बिहारी-रत्नाकर है । हे चतुर ( भोली ) स्त्री, [ यह ] चूना नहीं हैं, । अतएव ] वस्त्र से पोंछने से क्योंकर जा सकता है ॥ ‘चतुर' शब्द का अर्थ यहाँ लक्षणा से भोली होता है । चितु वितु तु न, हरत हठि लालन-दृग बरजोर । सावधान के वटपर ए, जगत के चोर ॥ १७४ ॥ वितु = धन || जोर = बलवान् ।। बटर =: वाट में पड़ने वाले अर्थात् अाक्रमण करने वाले, डाकू ।। ( अवतरण ) --वानुरागिनी नायक का वचन सखी --- ( अर्थ )--चित्तरूपी धन वधन नहीं पाता। लालन के प्रवल दृग [ उसको ] हठात् हर लेते हैं । ये ( लालन के दृग ) सावधान ( सचेत रहने वाले ) के डाकू, [ तथा ] जागते हुए के चोर हैं [ अर्थात् 'डाकृ शोर वार तो मनुष्य को असावधान तथा सोया पा कर उसका वित्त हरते हैं, पर ये सचेत था जागते रहने पर भी वल-पूर्वक चित्त को हर लेते हैं ]॥ विकसित-बचल्ली-कुभ-निकसित परिमल पाई । परस पजारत बिर- रो रहे कई बाई । १७५ ।। ( अवतरण ) वर्षा ऋन के गंधित वन की ईपकता का वर्णन नायिका सखी से करती है ( अर्थ )-खिलते हुए नवमरिका के फूलों से निकलता हुआ परिमल (सुगंध ) पा कर बरसते हुए [ समय ] का वायु विरह के हृदय को स्पर्श कर के जलाता है ॥ गोप अथइनु , गोरज छाई गैल ।। चलि, बलि, अजि, अभर की भी संझौखें सैल ।। १७६ ॥ अथाइनु = नौपाल, द्वार पर की वैठकें ।। अजार : कान्ग में यह एक पारिभाषिक शब्द है। इसका अर्थ है, नायिका का नायक के पास जाना ।। ।।खें = संवा के समय में ॥ सैल ( अरब सर ) = जी बलाने के लिए घूमना फिरना । । ( अवतरण ) - दुनी अथवा सखी नायिका को संध्या-य भर.रि करने की उत्तेजना देती है ( अ )--गोप अधाइया से उठ गए, और मार्ग में गारज छा गई है [ अतः इस समय तुझको कोई देख न सकेगा ।। है अली, में वलि जाती हूँ, [ तू शीघ्र ] चल । अभिसार के निमित्त संध्या-लमय सेल ( सर ) अच्छी होती है ॥ पहुँचति डॅटि रन-सुभट लौं, रोक सकैं सब नाँहि । लाखनु हूँ की भीर मैं ऑखि उहाँ चलि जाँहि ॥ १७७॥ १. आभसारिका ( ४ ), अभिसारिके ( ५ ) । २. खरी ( ५ ) । ३. हरि ( १ )।