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बिहारी-रत्नाकर लोइन-कोइनुलोचनों के कोयाँ में ॥ छाँह = छाया, आभा ॥
( अवतरण )--प्रातःकाल नायक नायिका के घर आया है । उसकी आँख मैं, रात को अन्य स्त्री के साथ जागने के कारण, लाली छाई हुई है, और इधर नायिका की आँखें भी रोष से लाल हो रही हैं। शठ नायक नायिका की आँख की लाली का कारण ऐसी भोली बात से पूछता है, मानो उसका कुछ अपराध ही नहीं है, और खता नायिका उसे उत्तर देती है
| ( अर्थ )-हे बाला, [ तेरी ] आँखों के कोयों में लाली क्यों हो आई है । हे लाल, [ यह मेरी आँखों में लाली नहीं हो आई है, प्रत्युत ! तुम्हारी आँखों की आभा [ मेरी ] आँखों में पड़ी है [ अर्थात् तुम अपनी आँखें तो देखो कि रात भर जागने से कैसी लाल हो रही हैं ] ॥ ।
तरुनकोकनद-बरनबर भए अरुन निसि जाग ।
वाही कै अनुराग दृग रहे मनौ अनुरागि ॥ १६९ ।। तरुन ( तरुण ) = यौवनावस्था को प्राप्त । यहाँ इसका अर्थ खिले हुए है ॥ कोकनद = लाल कमल ॥ अनुरागि= अनुरक्त हो कर, रँग कर ॥
( अवतरण )-प्रौढा खंडिता अधीरा नायिका का वचन नायक से -
( अर्थ )-हे लाल, [ तुम्हारे दृग ] रात भर जाग कर तरुण कोकनद के सुंदर रंग के लाल हो गए हैं, मानो [ जिस स्त्री के साथ तुम जागे हो, ] उसी के अनुराग से [ जो तुम्हारे हृदय मैं है, तुम्हारे ] दृग रंग रहे हैं [ अर्थात् तुम्हारे दृगों की लाली से तद्विषयक अनुराग प्रकट होता है ] ॥
तजतु अठान न, हठ पखौ सठमति, आठौ जाम ।
भयौ बामु वा बाम कौं रहै कामु बेकाम ॥ १७० ॥ अठान= बुरी ठान, दुराग्रह ॥ सठमति = दुष्ट ॥ वामु=टेढ़ा, प्रतिकूल, दुःखदायी । बाम ( वामा )= स्त्री ।। बेकाम=विना काम ही के, व्यर्थ ॥
( अवतरण )--सखी नायक से नायिका का विरह निवेदन करती है
( अर्थ )—कामदेव उस स्त्री को अठों याम व्यर्थ ( विना किसी अपराध के ) दुःखदायी हुआ रहता है । [ उस ] दुए ने [ ऐसा ] हठ पकड़ लिया है [ कि अपनी ] बुरी ठान नहीं छोड़ता ॥
आवत जात न जानियतु, तेजहि तजि सियरानु ।
घरेहँ जंवाई लौं घट्यौ खरौ पूस-दिन-मानु ॥ १७१ ॥ सियरानु= शीतल हो गया, ठंढा पड़ गया ॥ घरहूँ जंवाई = घर का जमाई, अर्थात् वह जामाता, १. सत्रु ( ४) । २. घर हूँ जब लो घर खरो पुस मास दिन-मान ( ४ ) । ३. पोस ( ५ )
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बिहारी-रत्नाकर