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बिहारी-रत्नाकर मोहन-मूरति स्याम की अति अद्भुत गति जोइ ।
बसतु सु चित-अंतर, तऊ प्रतिबिंबितु जग होइ ।। १६१ ॥ मोहन-मूरति= मोहने वाली मूर्ति है जिसकी ऐसे । यह समस्त पद 'स्याम' शब्द का विशेषण है ।।
( अवतरण )-कोई भक़, जिसके हृदय मैं श्यामसुंदर बस गए हैं, और जिसको समस्त जगत् मैं सब पदार्थ श्याममय ही दिखलाई देते हैं, अपने मन से कहता है
( अर्थ ) हे मन,] मोहिनी मूर्ति वाले श्याम की [यह ] अति अद्भुत गति ( रीति, व्यवस्था ) देख [ कि यद्यपि ] वह बसते [ तो ] वित्त के भीतर हैं, तथापि प्रतिबिंबित जगत् में होते हैं ( अपना रूप जगत् के सब पदार्थों में दिखलाते हैं, अर्थात् श्यामसुंदर के हृदय में बसने से सर्व जगत् तन्मय दिखाई देने लगता है ) ॥
अन्नतता यह है कि जो वस्तु किसी अन्य वस्तु के भीतर रहती है, उसका प्रतिबिंब बाहर नहीं पडता; पर श्याम यद्यपि चित्त के भीतर बसते हैं, तथापि जगत् भर मैं उन्हीं का प्रतिबिंब भक्त को दिखलाई देता है।
'मोहन-मूरति', यह विशेषण कवि ने यही सूचित करने के लिये रक्खा है कि श्यामसुंदर की मूर्ति मैं ऐसी मोहिनी शक्ति है कि उनके हृदय मैं बसते ही चित्त माहित हो कर सब जगत् को तन्मय । देखने लगता है ॥
लटकि लडकि लटकतु चलतु डटतु मुकट की छाँह ।
चटक-भयो नटु मिलि गथी अटक भटक-बर्ट महि ।। १६२ ॥ डटतु=सजधज से शोभा देता हुआ ।। अटकभटक-बट=भूलभुलैयाँ का रास्ता । 'अटकभटक भूलभुलैयाँ को कहते हैं । उसमें कुछ ऐसे घुमावझिराव के मार्ग बने रहते हैं, जिनमें पड़ कर मनुष्य ठीक मार्ग बड़ी कठिनता से पाता है । 'बट' बाट का विकृत रूप है। बहुत से शब्दों के दीर्घ स्वरों को, समास होने पर, लघुता प्राप्त हो जाती है, जैसे पनिघट', बटपरा, नवठट इत्यादि में । अथवा 'अटकभटक-बट' का अर्थ भूलभुलैयाँ वाला वट वृक्ष करना चाहिए । भांडीर वन में अभी तक कुछ ऐसे वट के पुराने वृक्ष हैं, जिनकी बहँ लटक लटक कर इस प्रकार जम गई हैं कि उनके नीचे भूलभुलैयाँ सी बन गई हैं ॥
| ( अवतरण )–नायिका को श्रीकृष्णचंद्र के साथ भांडीर वन से निकलते कुछ सखिय ने देख लिया है, एवं उसको प्रेम-क्रीड़ा में लगे रहने के कारण घर आने में विलंब भी हो गया है। अतः वह अपनी वास्तविक बात छिपाने के लिये सखिर्यों से कहती है
( अर्थ )-[ दैवयोग से आज मुझे ] अटकभटक-बट में [ जहाँ मैं भूल कर बड़ी देर से भटक रही थी ] लटक लटक कर (झूम झूम कर ) लटकता ( झुकता हुआ ) चलता,[तथा ] मुकुट की छाया (झलक) से डटता ( शोभित होता हुआ ) [एक] चटकभरा ( चटकीली छवि से भरा हुआ अथवा फुर्तीला ) नट मिल गया [ जिसने मुझे वन के बाहर पहुँचा दिया ] ॥
'१: मुकुट(४, ५) । २. बन (४) ।
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बिहारी-रत्नाकर