पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/११३

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७०
बिहारी-रत्नाकर


७० बिहारी-रत्नाकर तथापि [ उसकी ] मुसकिराहट की चाहना कर रहे हैं । ये लालची लोचन ललचाने ( अधिक अधिक लालसा करने ) की वान ( प्रकृति ) नहीं छोड़ते ॥ छै छिगुनी पहुँचौ गिलत अति दीनता दिखाई। बलि बावनकी ब्यौतु सुनि को, बलि,तुम्हें पत्याइ॥ १५९ ॥ छिगुनी= कानी अँगुली ॥ गिलत =निगल लेते हो ॥ बलि= राजा बलि ॥ बावन=वामनावतारधारी भगवान् ।। ( अवतरण )–नायक किसी नायिका के रूप, गुण इत्यादि का वर्णन सुन कर, अथवा कहीं उसकी झलक देख कर, रीझ गया है, और उसकी सखी से प्रार्थना करता है कि और नहीं तो बैंक उसका दर्शन तो करा दे । इस पर सखी नायक से परिहास करती है ( अर्थ )-[ तुम्हारी तो यह रीति है कि ] बड़ी दीनता दिखला कर अँगुली छु (छूते ही ) [ चट] पहुँचा निगल ( पकड़ ) लेते हो । मैं तुम्हारी बालि गई, राजा वालि [ तथा ] वामन भगवान् का ब्योंत ( डौल, वृत्तांत ) सुनने के पश्चात् तुमको कौन पतियाय ( तुम्हारा कौन विश्वास करे ) । [ भावार्थ यह है कि अभी तो तुम मुझसे उसके दर्शन करा देने मात्र के निमित्त गिड़गिड़ा रहे हो, पर चार आँखें होते ही तुम उसका हृदय तक हरण कर लोगे, और फिर किसी की सुनोगे भी नहीं ] ॥ | इस परिहास से वह चतुर सखी नायक से यह वचन ले लिया चाहती है कि मैं सदा उस पर एकरस प्रेम रक्खेंगा ॥ नैना बैंक न मानहाँ, कितौ कयौ समुझाइ । तनु मनु हारें हैं हँसैं, तिन सौं” कहा बसाइ ॥ १६० ॥ बसाइ= बस चले ॥ ( अवतरण )-पूर्वानुरागिनी नायिका नायक को देख कर मुसकिराती है। सखी शिक्षा देती है। कि परपुरुष को देख इस प्रकार मुसकिराना उचित नहीं है । नायिका अपनी अनुराग-विवशता प्रकट करती हुई उसर देती है-- ( अर्थ )-[ मैंने इनसे ] कितना समझा समझा कर कहा, [ पर ] नैना ( १. दृग । २. जिसमें नीति नहीं है अर्थात् अनीतिज्ञ ) बैंक ( १. किंचिन्मात्र भी । २. नीति ) नहीं मानते । [ भला जो ] तन मन हारने पर भी हँसते रहते हैं (कुछ चिंता नहीं करते ), उन [ नासमझ जुवारियों ] से क्या वश चल सकता है ॥ यदि कोई कच्चा जुवारी होता है, तो हारने पर उसके चित्त मैं खेद तथा ग्लानि उत्पन्न होती है, और वह इष्ट मित्र के समझाने से जुवा खेलना छोड़ देता है। पर जो पक्के जुवारी हैं, वे सर्वस्व हार जाने पर भी ग्लानि नहीं मानते, प्रत्युस हँसते ही रहते हैं। ऐसे अनीतिज्ञ जुवारि से कुछ समझाना बुझाना नहीं चलता ॥ १. बिगुरी ( २ ) । २. गहत (२ ) 1३. हरि ( २ )। ४. तुमाह ( १ )।