बिहारी-रत्नाकर निगुनी ( निर्गुणी )= गुणहीन ॥ धनु = रुपया, अशरफी इत्यादि । मनि-मुत्तिय-माल = मणि तथा मोतियों की माला ॥ भेट होत=भेंट होते समय ॥ भाग= सौभाग्य ॥ चाहियतु= चाहिए होता है, श्रावश्यक होता है । भाल=ललाट में ॥ ( अवतरण )--कवि राजा जयशाह की उदारता की प्रशंसा करता है ( अर्थ )-राजा जयशाह से ( केवल ] भेंट होने के समय ( भट होने के निमित्त ) [ याचकों को अपने ] भाल मैं भाग्य की आवश्यकता पड़ती है । [ भेंट हो जाने पर, चाहे उनके भाल में सौभाग्य लिखा हो अथवा नहीं, और चाहे वे गुणहीन हो अथवा गुणी, सभी संपत्तिशाली हो जाते हैं ] निर्गुणी धन पा कर चलता है ( लौटता है ), [ और ]गुणी मणिमुक्ताओं की मालाएँ पा कर । [ भावार्थ यह है कि भाग्यवान् तथा गुणी को तो सब हो देते हैं, पर जयशाह अभागी एवं गुणहीन को भी संपत्तिवान् बना देता है 1॥ पुराने राज में प्रथा यह थी कि वे गुणहीन याचकौं को धन एवं गुणिर्यों के, उनके प्रतिष्टार्थ, मणिमुक़ादि की मालाएँ देते थे, अतः कवि ने गुणहीन तथा गुणवान के निमित्त यथासंख्य धन तथा मणिमुक़ादि की माला का पाना कहा है ॥ जसु अपजसु देखत नहीं देखत साँवल-गात । कहा करौं, लालच-भरे चपल नैन चलि जात ॥ १५७ ॥ साँवल-गात= साँवले गात वाले अर्थात् श्रीकृष्णचंद्र ॥ लालचभरे घपल = सौंदर्य-अवलोकन की लालसा से पूरित होने के कारण चंचल । ( अवतरण )--श्रीकृष्णचंद्र को देख कर नायिका के नयन उन्हीं की ओर जाते हैं। सखी उसे शिक्षा देती है कि परपुरुष को इस प्रकार बेधड़क दखना कुल-वधु का उचित नहीं है, इससे तुझे कलंक लगेगा । उत्तर मैं नायिका कहती है-- ( अर्थ )-क्या करूँ ( मेरा कुछ वश नहीं चलता ), [ मेरे ये ] लालच-भरे चपल नयन श्यामसुंदर को देखते [ ही ] यश अपयश नहीं देखते ( विचारते ), [ उसी ओर ] चले जाते हैं ॥ नख-सिख-रूप भरे खरे, तौ माँगत मुसंकानि ।। तजत न लोचन लालची ए ललचौहीं बानि ॥ १५८ ॥ ( अवतरण )–नायिका खड़ी नायक को देख रही है । सखी उससे कहता है कि अब तो तू भली भाँति देख चुकी, चलती क्या नहीं। नायिका कहती है कि वह नैक मेरी ओर देख कर मुसकिरा दें, ता चलू (अर्थ)-[ यद्यपि मेरे नेत्र नायक के ] नखसिख-सौंदर्य से भली भाँति भर गए है, १. लालिस ( १, २ ) । २. तउ ( ५ ) ।। ३. मुसिकानि ( १ ), मुसुकानि ( ४ ) ।