श्रम-पूर्वक परखकर साहित्य-संसार को उनके वास्तविक सुंदर, स्निग्ध और शीतल प्रकाश का परिचय कराना और संपादक-रूपी गुण-ग्राहकों ने अपने पत्र-भांडारों में इन प्राचीन या प्राचीन ढंग की कविता-मणियों को सादर और सस्नेह स्थान देना शुरू कर दिया है, तब से इन पुराने जवाहरातों के दिव्य दर्शनों के लिये प्रेमियों की प्यास बढ़ती ही जा रही है—उनका यह अनुराग धीरे-धीरे प्रगाढ़ और व्यापक होता जा रहा है। परंतु परिताप का विषय है कि प्रेमी पाठकों की इस परम पुनीत लालसा की पूर्ति के लिये कोई पूरा प्रयत्न नहीं हो रहा है। आशा थी, सभी साहित्यिक संस्थाओं की मुकुटमणि काशी-नागरीप्रचारिणी सभा इस कार्य को तीव्र गति से करेगी। इस उद्देश्य को दृष्टि में रखकर अब तक उसी ने सबसे अधिक सराहनीय सेवा की भी है; किंतु अपने अन्यान्य अनेक उद्देश्यों की पूर्ति में लगे रहने के कारण इस ओर उसकी चाल इतनी मंद है, और कार्य का परिमाण इतना स्वल्प कि उसके द्वारा प्राचीन कविता-मणियों के पूर्ण प्रकाश का कठिन कार्य शीघ्र संपन्न होते नहीं दिखलाई पड़ता। प्रयाग के हिंदी-साहित्य-सम्मेलन से भी इस संबंध में समुचित सेवा संभाव्य थी। किंतु जिस उदासीन भाव से वह इस मार्ग में बढ़ रहा है, उससे भी प्राचीन कविता-प्रेमियों को पर्याप्त प्रोत्साहन नहीं प्राप्त हो रहा है। अतएव ऐसी परिस्थिति पर पूर्णतः विचार करके—प्राचीन हिंदी-कविता के ग्रंथों के समुचित प्रकाशन का अत्यंत शिथिल प्रयत्न देखकर—यदि हमारे हृदय में भय का उदय हो, तो उचित ही है। कारण, समुद्र की तरंग-मालाएँ किसी अवसर-विशेष पर ही तट की ओर उमड़ चलती हैं। हिंदी-संसार में इस समय प्राचीन हिंदी-कविता के प्रति जो प्रेम प्रस्फुटित हुआ है, उसे देखते हुए हमें उस साहित्य के उद्धार का यही उपयुक्त समय प्रतीत होता है। अवसर बार-बार नहीं आता। अनेक बहुमूल्य ग्रंथ-रत्न बस्तों में बँधे नष्ट हो गए, अनेक नष्टप्राय हैं; पर कुछ प्रेमियों की सतर्कता से अब भी सुरक्षित हैं। जिन सज्जनों ने साहित्य-रक्षा के सुकार्य में इस प्रकार सहायता पहुँचाई है, उनकी सत्कीर्ति साहित्य के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगी। किंतु अब उनसे इस रखवाली का काम लेते रहना ठीक नहीं। अब तो इन ग्रंथ-रत्नों को बाहर लाना ही पड़ेगा—उनके सर्वागसुन्दर प्रकाशन का प्रबंध करना ही पड़ेगा, जिसमें उनकी जगमग ज्योति से काव्य-जगत् जगमगा उठे।
जिन प्रेसों तथा प्रकाशकों ने प्रतिकूल काल में भी अनेक पुस्तकों का प्रकाशन करके उन्हें नष्ट नहीं होने दिया, उनमें कदाचित् लखनउ के नवलकिशेर-प्रेस का नाम ही अग्रगण्य है। सैकड़ों सुंदर काव्यों का उद्धार करके उन्हें साहित्य-रसिकों को समर्पित करने का श्रेय उसे है। उसके अनंतर काशी-नागरीप्रचारिणी सभा के अतिरिक्त (जिसका हम ऊपर उल्लेख कर आए हैं) काशी के भारत-जीवन और लाइट-प्रेस, बंबई के वेंकटेश्वर-प्रेस, बाँकीपुर के