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बिहारी-रत्नाकर ( अर्थ )-[ हे प्यारी, ] यद्यपि शीघ्रगामी घोड़े के बल ( पराक्रम के कारण ) [ मुझे पहुँचने में ] पल मात्र भी बार ( विलंब ) नहीं लगी, तथापि [ तुझसे मिलने की उत्सुकता के कारण] घर का ग्वैड़ा ही मुझे] हज़ार कोस का पेड़ा ( मार्ग ) हो गया (प्रतीत हुआ) ॥ पूस-मास सुनि सखिनु पैं साईं चलत सवारु । गहि कर बीन प्रबीन तिय राग्यौ रागु मलारु ॥ १४६ ॥ सवारु= प्रातःकाल ।। राग्यौ = अलापा ॥ भलारु ( महार ) =राग विशेष । इस राग के विषय में प्रसिद्ध यह है कि इसके यथार्थ रीति से गाने अथवा बजाने से पानी बरसने लगता है ॥ ( अवतरण )—प्रौदा प्रवत्स्यत्प्रेयसी नायिका नायक के परदेश-गमन को रोकने का प्रयत्न करती है । सखी का वचन सखी से ( अर्थ )--पूस के महीने में सखियों से [ यह ] सुन कर [ कि ] प्रातःकाल पति [ परदेश ] चलता है ( जाने वाला है ), प्रवीण ( संगीत-विद्या में निपुण ) स्त्री ने हाथ में बन ले कर मल्लार राग रागा ( अलापा )[ जिसमें पानी बरसने लगे, और प्रियतम का जाना रुक जाय; क्योंकि अकाल वृष्टि में यात्रा निषिद्ध है ] ॥ | -** -- बर्न-तन कौं, निकसत, लसत हँसत हँसत, इत आइ । दृग-खंजन गहि लै चल्यौ चितवनि-चैएँ लगाइ ॥ १४७ ॥ बन-तन= वन की ओर । लसत = क्रीड़ा करता हुआ । चैपु= लासा ॥ ( अवतरण )–नायिका अपने द्वार पर निकल आई थी। इतने ही मैं नायक उसकी ओर मुसकिराता हुआ आ कर और उसको प्यार की दृष्टि से देख कर वन की ओर चला । नायिका उसकी उस लगावट की चितवन से ऐसी मोहित हो गई कि उसके नेत्र नायक के पीछे लग जिए, जिससे अाकर्षित हो कर वह स्वयं भी उधर ही चल पड़ा । अपनी अंतरंगिनी सखी के यह गहने पर कि तू कहाँ चल रही है, वह उत्तर देती है कि मैं क्या करूँ, मेरी अाँख को वह फैसा लिए जाता है ( अर्थ )-[ हे सखी ! मैं क्या करूँ, मेरे घर से ] निकलते ही [ वह ] हँसता हँसता क्रीड़ा करता हुआ इधर आ कर, [ मेरे ] दृग-रूपी खेज को [ अपनी ] चितवन-रूपी बैंप लगा कर वन की ओर पकड़ ले चला [ अतः मैं उसी के पीछे चल रही हूँ ] ॥ खर्जी को बहेलिए जंगल से पकड़ कर नगर मैं लाते हैं, पर इस दोहे में यह विलक्षणता है कि नागर नायक का नायिका के हुग-रूपी खंज को नगर से पकड़ कर वन की ओर ले चलना कहा गया है ॥ -- - -- मरनु भलौ बरु विरह हैं, यह निहचर्ये करि जोइ । मरन मिटै दुख एक कौ, बिरह दुहुँ दुखु होइ ॥ १४८ ॥ १. लें (५) । २. बनठन ( २ ) । ३. गए ( २, ४) । ४. चोप ( ४ ) । ५. बिचार ( २ ) ।।