संपादकीय निवेदन
प्रचलित भारतीय भाषाओं में हमारी मातृभाषा हिंदी का प्राचीन कविता-भांडार जितना भरापुरा है, उतना कदाचित् ही और किसी का हो। हिंदी-माता का यही साहित्य-भांडार अन्यान्य बहनों के सामने उसका मस्तक ऊँचा किए हुए है। किंतु अथाह रत्नाकर के समान हमारे इस सुविस्तृत साहित्य के भी अधिकांश रमणीय रत्नों का परमोज्ज्वल प्रकाश काव्यरत्न-प्रेमियों का नेत्ररंजन और मनोरंजन नहीं कर रहा है। समुद्र की अँधेरी, अज्ञात और अगम्य गुफाओं में जैसे असंख्य, मंजुल, मनोमोहक और मूल्यवान् मणियाँ भरी पड़ी हैं, वैसे ही हमारे भी बहुतेरे उत्कृष्ट, उज्ज्वल और उपयोगी ग्रंथ, हस्तलिखित रूप में, प्राचीन प्रकार के बस्तों में बँधे, बक्सों में बंद पड़े सड़ रहे हैं; मानो साहित्य-संसार से उनका कोई संबंध ही नहीं। इसमें संदेह नहीं कि कुछ साहित्यिक ग़ोताख़ोरों ने बस्तों की कंदराओं से निकालकर अनेक ग्रंथ-रत्नों का मुद्रण-उद्धार अवश्य किया है। परंतु वे भी प्रकाशन के उस प्राचीन परिच्छद में प्रकट हुए हैं, जो इस समय बिलकुल प्रचलित नहीं। इसके अतिरिक्त ये ग्रंथ-रत्न जिस रूप में प्राप्त हुए हैं, उसी में प्रायः प्रकाशित भी कर दिए गए हैं। उनका समुचित संशोधन और संस्करण करके—भूमिका, टिप्पणी आदि की ओप तथा डाँक देकर, सुंदर, सुसज्जित स्वरूप में, साहित्य-संसार को समर्पित करने का पर्याप्त प्रयत्न प्रायः किया ही नहीं गया है। इसलिये इन दोनों ही स्थितियों—बस्तों में बँधने की हस्तलिखित स्थिति और प्राचीन प्रकार से छपने की मुद्रित स्थिति—का परिणाम प्रायः एक ही हो रहा है। इन दोनों ही ढंगों के ग्रंथों से वर्तमान हिंदी-कविता-प्रेमी यथेष्ट लाभ नहीं उठा रहे हैं—या यों कहिए कि उठा ही नहीं सकते। क्या यह शोक की बात नहीं कि सूर, बिहारी, देव, मतिराम, कबीर, सेनापति, पद्माकर, हरिश्चंद्र आदि बड़े-बड़े कवियों तक की कमनीय कृतियाँ, जिनका जगत् की किसी भी भाषा को गर्व हो सकता था, सर्वांग-सुंदर संस्करणों में सुलभ नहीं! मातृभाषा का यह भारी अभाव हमारे हृदय में, सुदीर्घ काल से, काँटे की तरह खटक रहा था।
हर्ष की बात है, इधर जब से कुछ समालोचक-जौहरियों ने प्राचीन काव्य-रत्नों को परि-